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द्वितीय अध्याय : आदर्श महापुरुष
पापित्यिक परम्परा वुद्ध के समय विद्यमान थी। बुद्ध तथा उनके अनुयायी इस परम्परा से पूर्ण अभिन थे। वौद्धपिटको मे निर्ग्रन्थ साधु के लिए आया हुआ “चातुर्यामसवरसवुत्तो" विशेषण हमें पार्श्वनाथ की इसी परम्परा की ओर सकेत करता है ।
महात्मा बुद्ध ने गृह-त्याग के बाद कुछ दिन तक निर्ग्रन्थ आचार का पालन किया। उसके साथ तत्कालीन निर्ग्रन्थ आचार का जव हम मिलान करते है तथा वौद्धपिटको मे पाये जाने वाले आचार और तत्त्वज्ञान सम्बन्धी कुछ पारिभाषिक शब्दों,२ जो केवल निर्ग्रन्थ प्रवचन मे ही पाये जाते है, पर विचार करते है तो ऐसा मानने मे कोई सदेह नहीं रहता कि बुद्ध ने भले ही थोडे समय के लिए हो, पार्श्वनाथ की परम्परा को स्वीकार किया था । वौद्ध विद्वान् अध्यापक धर्मानन्द कोशाम्बी भी इस मान्यता से सहमत है।४
१ दीघनिकाय, मामञ्जफलसुत्त । २. पुग्गल, आसव, मंवर, उपोमथ, सावक, उवासग इत्यादि । पुग्गल शब्द
बौद्ध पिटक मे जीव व्यक्ति का वोधक है (मज्झिमनिकाय, १०४) । जैनपरम्परा मे वह शब्द सामान्य रूप से जड परमाणुओ के अर्थ मे रूढ हो गया है। तो भी भगवती तथा दशवकालिक के प्राचीन स्तरो मे उसका बौद्ध-पिटक स्वीकृत अर्थ भी सुरक्षित रहा है । आसव और मंवर, ये दोनो शब्द परस्पर विरुद्धार्थक हैं। आमवचित्त या आत्मा के क्लेश का बोधक है, जवकि सवर उमके निवारण एव निवारण उपाय का । ये दोनो शन्द जैन आगम और बौद्धपिटक मे समान अर्थ में प्रयुक्त होते है (स्थानाग सूत्र १ ला स्थान, समवायागसूत्र ५वा समवाय, मज्झिम निकाय, २ ) । 'उपोसथ' शब्द गृहस्थो के उपव्रत विशेष का वोधक है जो पिटको मे आता है (दीघनिकाय २६) । उसी का एक रूप पोसह या पोपध भी है जो आगमो में प्रयुक्त होता देखा जाता है (उवासकदसाओ)। सावक तथा उवासग-ये दोनो शव्द किसी न किसी रूप मे पिटक (दीघ
निकाय ४ ) तथा आगमो मे पहले से प्रचलित रहे है । ३ जैन दर्शन, पृ० ७ ४ पार्श्वनाथाचा चातुर्यामधर्म, पृ०, २४-२६