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जैन अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
अवस्था को प्राप्त किया । वे ८३ दिन तक निरतर तपश्चरण मे मग्न रहे । ८४ वे दिन चैत्र कृष्णा चतुर्थी को धातको वृक्ष के नीचे उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया । भगवान् पार्श्वनाथ के ८ गण तथा ८ गणधर थे । उनके सघ मे १६ हजार श्रमण, १८ हजार आर्यिका, १ लाख ८४ हजार उपासक, ३ लाख २७ हजार उपासिकाएँ तथा अनेक पूर्वधारी केवलज्ञानी आदि थे ।
भगवान् पार्श्वनाथ का जीवन काल कुल १०० वर्षो का है जिसमे वे ३० वर्ष तक गृहस्थ रहे। उन्होने ८३ दिन तक तपश्चरण कर केवलज्ञान प्राप्त किया तथा कुछ कम ७० वर्ष तक केवली अवस्था मे निरतर भ्रमण करते हुए वे मनुष्यों को उपदेश देते रहे ।
अवसर्पिणी काल के दूपम-सुपमा के अधिक भाग समाप्त हो चुकने के बाद श्रावण शुक्ला अष्टमी के दिन सम्मेत शिखर (पार्श्वनाथ हिल) पर ८३ साधुओ के साथ भगवान् पार्श्वनाथ ने निर्वाण पाया । उनके निर्वाण को १२२६ वर्ष व्यतीत हो चुके है । "
भगवान् पार्श्वनाथ का समय महावीर से २५० वर्ष पूर्व माना जाता है | पार्श्वनाथ ने अपने जीवन काल में अनेक स्थानो की यात्रा की जिनमे अहिछत्त, आमलकप्प, सावत्थी, हत्थिनापुर, कम्पिल्लपुर, सागेय, रायगिह तथा कोसम्वी प्रधान है । वे " पुरिसादानीय" अर्थात् मनुष्यो के सम्मानीय रूप मे प्रसिद्ध थे | 3
पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म
भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा से चला आने वाला धर्म चातुर्याम धर्म कहलाता था जिसका वर्णन स्थानागमूत्र मे मिलता है । १ सर्वप्राणातिपात विरमण, २. सर्वमृपावाद विरमण, ३ सर्वअदत्तादान विरमण और ४ सर्ववहिद्वादाण विरमण अर्थात् सपूर्ण प्रकार की हिसा, झूठ, चोरी तथा परिग्रह से निवृत्ति | ४ टीकाकार अभयदेव ने वहिद्धादाण का अर्थ, परिग्रह किया है । इस परिग्रह मे अब्रह्म का त्याग भी इष्ट था ।
१ जैनसूत्राज्, भाग १ ( कल्पसूत्र, लाइफ् आफ् पार्श्व, २ वही भाग २ उत्तराध्ययन, नोट न० ३ पृ०, १८९
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ला० इन० ए० इ०, पृ० १८
स्थानागसूत्र २६६, पृ० १८९
पृ० २७१