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प्रथम अध्याय : अगशास्त्र का परिचय
रखने का प्रयत्न किया गया है। यही कमी जैनश्रुत की अव्यवस्था मे कारण हुई है। ब्राह्मणो को अपना सुगिक्षित पुत्र और वैसा ही सुशिक्षित ब्राह्मण शिष्य प्राप्त होने मे कोई कठिनाई नही थी, किन्तु जैनश्रमण के लिए तो अपना सुगिक्षित पुत्र जैनश्रुत का अधिकारी ही नही है, यदि वह श्रमण नही है । और उधर अगिक्षित श्रमण, पुत्र न होने पर भी यदि गिप्य हो, तो वही श्रुत का अधिकारी हो जाता है। वेद की सुरक्षा एक वर्गविशेप से हुई है, जिसका स्वार्थ उसकी सुरक्षा मे ही था। जनश्रत की रक्षा वैसे किसी वर्गविशेष के अधीन नही, किन्तु चतुर्वर्ण मे से कोई भी मनुष्य यदि जैनश्रमण हो जाता है तो वही जैनश्रुत का अधिकारी हो जाता है। वेद का अधिकारी ब्राह्मण अधिकार पाकर उससे वरी नही हो सकता, अर्थात् उसके जीवन की प्रथमावस्था मे नियमित वेदाध्ययन आवश्यक था। अन्यथा ब्राह्मण समाज मे उसका कोई स्थान नही था। इसके विपरीत जैनश्रमण को जैनश्रुत का अधिकार तो मिल जाता है किन्तु कई कारणो से वह उस अधिकार के उपयोग में असमर्थ रहता है । ब्राह्मण के लिए वेदाध्ययन सर्वस्व था, किन्तु जैन श्रमण के लिए आचार ही सर्वस्व है। अतएव कोई मन्दबुद्धि गिप्य सम्पूर्ण श्रुत का पाठ न भी कर सके, तव भी उसके मोक्ष में किसी भी प्रकार की रुकावट नही थी और उसका ऐहिक जीवन भी निर्वाध रूप से सदाचार के वल पर व्यतीत हो सकता था। जैनसूत्रो का दैनिक क्रियाओ मे विशेप उपयोग भी नही है। जहाँ एक सामायिक पदमात्र से भी मोक्षमार्ग सुगम हो जाने की शक्यता हो, वहा विरले ही साधक यदि सम्पूर्ण श्रुतधर होने का प्रयत्न करे, तो इसमे क्या आश्चर्य ? अधिकाग वैदिक सूक्तो का उपयोग अनेक प्रकार के क्रियाकाण्डो मे होता है, तव कुछ ही जैन सूत्रो का उपयोग श्रमण के लिए अपने दैनिक जीवन मे है। अपनी स्मृति पर बोझ न वढा कर पुस्तको मे जैनागमो को लिपिवद्ध करके भी जैनश्रमण आगमो को बचा सकते थे, किन्तु ऐसा करने मे अपरिग्रहव्रत का भङ्ग असह्य था। उसमे उन्होने असयम देखा।' जव उन्होने अपने अपरिग्रह व्रत को कुछ शिथिल किया, तब वे आगमो का अधिकाग भूल चुके थे। पहिले जिस पुस्तक-परिग्रह को असयम का कारण समझा था
१ पोत्थए सु घेप्पत एमु असजमो भवड। -दणवैकालिक चूणि, पृ० २१