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जन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास अगशास्त्र का इतिहास .
अगशास्त्र की सुरक्षा---ऋग्वेदादि वेदो की सुरक्षा भारतीयो का अद्भुत पराक्रम है। आज भी भारतवर्ष में ऐसे संबडो ब्राह्मण वेदपाठी मिलेगे, जो आदि से अन्त तक वेटो का शुद्ध मुखपाठ कर सकते है, उनको वेद-पुस्तक की आवश्यकता नही होती। वेद के अर्थ की परम्परा भले ही उनके पास नहीं है, किन्तु वेदपाठ की परम्परा तो अवश्य है।
जैनो ने भी अपने अगग्रन्थो को सुरक्षित रखने का वैसा ही प्रवल यत्न भूतकाल मे किया है, किन्तु जिस रूप मे भगवान् के उपदेश को गणधरो ने ग्रथित किया था, वह प आज हमारे पास नही है । प्राकृत होने के कारण उसकी भापा मे परिवर्तन होना स्वाभाविक ही है। अत ब्राह्मणों की तरह जैनाचार्य और उपाध्याय अगग्रन्थो की अक्षरग सुरक्षा नहीं कर सके है। इनना ही नहीं, वे कई सम्पूर्ण ग्रन्थो को तो भूल भी चुके है और कई ग्रन्थो की अवस्था विकृत कर दी गई है। फिर भी इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अगो का अधिकाग जो आज उपलब्ध है वह भगवान् के उपदेश के अधिक निकट है । उस मे परिवर्तन और परिवर्द्धन हुआ है, किन्तु सव का सव विल्कुल नया और मनगढन्त ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । क्योकि जैन सघ ने उस सम्पूर्ण श्रुत को बचाने का बार-बार जो प्रयत्न किया है, उसका साक्षी इतिहास मिटाया नही जा सकता। __भूतकाल मे जो वाधाएँ जैनथ्रत के नाग मे कारण हुई , क्या वे ही वेदो का नाग नही कर सकती थी? क्या कारण है कि जैनश्रुत से भी प्राचीन वेद तो सुरक्षित रह सके और जैनश्रुत सम्पूर्ण नहीं तो अधिकाग नष्ट हो गया ? इन प्रश्नो का उत्तर सहज ही है ।
वेदो की सुरक्षा मे दोनो प्रकार की परम्पराओ ने सहयोग दिया है । जन्मवग की अपेक्षा पिता ने पुत्र को और उसने अपने पुत्र को, तथा विद्यावग की अपेक्षा गुरु ने गिष्य को और उसने अपने गिण्य को वेद सिखाकर वेदपाठ की परम्परा अव्यवहित गति से चालू रखी है, किन्तु जैनागम की रक्षा मे जन्मवश को कोई स्थान ही नही है। यहाँ पिता अपने पुत्र को नही, किन्तु अपने शिष्य को ही पढाता है । अतएव केवल विद्यावा की अपेक्षा से ही जैनश्रत की परम्परा को जीवित