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जैन-अंगशास्त्र अनुमार मानय निन्या विकास
उसी को सयम का कारण मानने लगे। कयोकिमा न करने ना श्रुतविनाग का भय था। किन्तु अब क्या हो सकता था जो कुछ उन्होंने खो दिया था, वह तो मिल ही नहीं माना था । जान नना अवश्य हुआ कि जव मे उन्होने पुस्तक-परिग्रह को नयम का कारण माना, तो जो कुछ आगमिकमपत्ति उस समय तक गेप रह गई श्री. वह सुरक्षित रह गई, अधिक हानि नहीं है। आचार के नियमो को श्रुत की सुरक्षा की दृष्टि से गिथिल कर दिया गया। श्रुत रक्षा के लिए कई अपवादो की मृप्टि भी की गई। __ दैनिक आचार में भी श्रतस्वाध्याय को अधिक महत्व दिया गया। इतना करने पर भी जो मौलिक कमी थी उसका निवारण ती हुआ ही नही, क्योकि गुरु अपने श्रमणशिष्य को ही जान दे सकता है. यह जो नियम था, उसका तो अपवाद हुआ ही नहीं। अतएव अध्येता श्रमणो के अभाव मे गरु के साथ ही ज्ञान चला जाए तो उसम आश्चर्य क्या? कई कारणो से, विशेषकर जनश्रमण की कठोर तपस्या और अत्यन्त कठिन आचार के कारण अन्य वौद्धादि श्रमणमंत्री की तरह जैनश्रमणसघ का सख्यावल प्रारम्भ से ही कम रहा है। ऐसा स्थिति मे कठस्थ ग्रन्थो की तो क्या, वलभी में लिखित सकल ग्रन्थो की भी सुरक्षा न हो सकी तो इसमे आश्चर्य क्या है।'
पाटलिपुत्र की प्रथम वाचना--वौद्ध इतिहास मे भगवान् बुद्ध के उपदेश को व्यवस्थित करने के लिए भिक्षुओ ने कालक्रम ने तीन सँगीतिया की थी, यह प्रसिद्ध है। उसी तरह भगवान महावीर के उपदेश को व्यवस्थित करने के लिए जैनाचार्यों ने भी मिलकर तीन वाचनाएँ की। जव-जव जैनाचार्यों ने देखा कि श्रुत का ह्रास हो रहा है, उसमे अव्यवस्था हो गई है, तब-तब उन्होने एकत्र होकर जैनश्रुत को व्यवस्थित किया है।
भगवान् महावीर के निर्वाण के वाद आचार्य यशोभद्र के ज्येष्ठ
१ काल पुण पडुच्च चरणकरणट्ठा अवोच्छित्तिनिमित्त च गेण्हमाणम्स पोत्यए सजमो भवड।
-दशवकालिक चूणि पृ० २१. जैनागम, पृ० १० ३ सच्चमगहो भूमिका, पृ० ९, तथा ला० इन ए० इ०, पृ० ३३, नोट ६.