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जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास स्थविर कहलाता था। पर्याय का अर्थ है प्रव्रज्या-ग्रहण । जो श्रमण प्रव्रज्याग्रहण की अपेक्षा अन्य श्रमणो से वृद्ध होता था, वह पर्यायस्थविर कहलाता था।'
श्रमण निथ के पाच भेद किए गए है-१ पुलाक २ वकुश ३ कुशील ४ निग्न थ ५ स्नातक ।
श्रमणजीवन के मूल गुर्गों तथा उत्तरगणो मे परिपूर्णता प्राप्त न करके भी जो वीतरागप्रणीत आगम मे कभी अपनी श्रद्धा शिथिल नही होने देता, वह पुलाक है। ___जो शरीर तथा उपकरण (वस्त्र-पात्र-रजोहरण आदि) के संस्कारों मे लीन रहता हो, सिद्धि तथा कीर्ति चाहता हो और सुखशील हो, वह वकुश है। वकुश निर्गथ दो प्रकार के होते है-उपकरणवकुश और शरीरबकुश । जो उपकरणो मे आसक्त होने के कारण नाना प्रकार के बहुमूल्य और अनेक विशेपतायुक्त उपकरणो का संग्रह करता है तथा हमेशा उनकी सजावट आदि मे लीन रहता है, वह उपकरणवकुश है । जो शरीर मे आसक्त होने के कारण उसकी शोभा के निमित्त उसका संस्कार करता रहता है, वह शरीरवकुश है।
कुशील के दो भेद है-प्रतिसेवनाकुशील तथा कषायकुशील । जो इन्द्रियो का वशवर्ती हो, वह प्रतिसेवनाकुशील है। जो तीन कषाय के वश न हो कर कदाचित केवल मन्द कषाय के वशीभूत हो जाए, वह कषायकुशील है।
जिसमे सर्वज्ञता न होने पर भी रागद्वष का अत्यन्त अभाव हो और केवल अन्तर्मुहूर्त के बाद ही जिसको सर्वज्ञता प्रकट होने वाली हो, वह निनथ है।
जिसमे सर्वज्ञता प्रकट हो चुकी हो, वह स्नातक है ।२
१. स्थानाग, १५९, (अभयदेववृत्ति, पृ० १२३) । २ स्थानाग ४४५ (अभयदेववृत्ति पृ० २१९) तथा वही १५८
पृ० १२३-१२५