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________________ षष्ठ अध्याय : श्रमण-जीवन [ १८६ गया तथा उसे सुन्दर वस्त्र और आभूषणो से सुज्जित किया गया । इसके बाद वह शिविका मे बैठा । उसके दाहिनी ओर माता तथा वॉई ओर धर्मोपकरण ले कर उपमाता (धाय) बैठी । मेघकुमार गुणशीलक चंत्य पर भगवान् महावीर के निकट गए तथा अपने हाथो से पंचमुष्टि के लोच कर महावीर के समक्ष उपस्थित हुए और तीन बार उनकी प्रदक्षिणा कर स्तुति तथा पूजा की। महावीर ने मेघकुमार को प्रव्रजित कर स्वीकार किया और उसे उपदेश दिया कि तुम्हे अव यत्ना से चलना है, खड़ े होना है, वंठना है, सोना है, खाना है, बोलन आदि है । श्रमण अवस्था के भेद दीक्षाकाल गुण, आयु आदि की अधिकता तथा अल्पता की अपेक्षा साधु के दो भेद किए गए है-— शंक्ष तथा स्थविर । जो श्रमण किसी आचार्य के निकट शिक्षा ( उपदेश ) ग्रहण कर साधुजीवन की प्रव्रज्या धारण करता था, उसे क्ष कहा जाता था । शैक्ष का अर्थ हैशिक्षार्थी नवदीक्षित या अल्प अवस्था वाला साधु । क्ष के तीन भेद है— उत्कृष्ट, मध्यम तथा जघन्य । जो श्रमण आचार्य के निकट सात दिन-रात तक शिक्षा ग्रहण करके महाव्रत स्वीकार करता था, वह जघन्य शैक्ष कहलाता था । जो चार मास की शिक्षा के बाद महाव्रत स्वीकार करता था, वह मध्यम शैक्ष कहलाता था । इसी प्रक र जो छह मास की शिक्षा के बाद महाव्रत स्वीकार करता था, वह उत्कृप्ट शैक्ष कहलाता था । इस छह माह की सीमा का उल्लघन नही किया जाता था । अर्थात् छह माह की शिक्षा ग्रहण के वाद श्रमणदीक्षा स्वीकार करना अनिवार्य था । शैक्ष के विपरीत स्थविर होता था । स्थविर शब्द का अर्थ है वृद्ध, दीर्घ अवस्था वाला साधु | स्थविर के तीन भेद हैं- १ जातिस्थविर, २ श्रुतस्थविर ३ पर्यायस्थविर | जाति का अर्थ है जन्म, जो श्रमण जन्म की अपेक्षा अन्य श्रमणो से वृद्ध होता था, वह जातिस्थविर कहलाता था । श्रत का अर्थ है- आगम । जो श्रमण अन्य श्रमणों की अपेक्षा आगमजान मे वृद्ध होता था, वह श्रुत
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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