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जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
भगवान् उपदेश देकर कृतकृत्य हो जाते है, उस उपदेश को गणधर या विशिष्ट प्रकार के साधक ग्रन्थ का रूप देते है।' जैसे समय समय पर बुद्ध ने जो मार्मिक गाथाएं कही, उनका सकलन उदान' मे पाया जाता है, ऐसे ही अनेक गाथाएं और वाक्य उन उन प्रसगो पर जो तीर्थकरो ने कहे, वे सव मूल ही नही, गव्दरूप मे भी इन गणधरो ने द्वादशाग मे रखे होगे ।२
भगवान् महावीर का निर्वाण ४६७ ई० पू० हुआ था। महावीर के समय मे जैन सिद्धान्त 'चतुर्दश पूर्व' के रूप मे प्रचलित था । महावीर ने ये चौदह पूर्व अपने शिष्यो को अच्छी तरह सिखाये और उनका अभ्यास भी कराया। महावीर के निर्वाण के वाद उनके गियो ने चौदह पूर्वो, महावीर के उप देगो तथा महावीर के शिप्यो के जीवन के आधार पर जिन सैद्धान्तिक आगमो का निर्माण किया, वे अगशास्त्र के नाम से प्रसिद्ध हुए । यद्यपि इन अगगास्त्रो की सख्या १२ है, किन्तु वर्तमान मे केवल ११ अगशास्त्र ही उपलब्ध है। अन्तिम अग दृष्टिवाद है, जो कि दार्शनिक गहन विचारो से परिपूर्ण एव अत्यन्त क्लिष्ट होने के कारण उपेक्षित रहा और इसी कारण लुप्त भी हो गया । अगशास्त्रो के निर्माण के कारण पूर्वशास्त्रो का अध्ययन तथा अध्यापन प्राय. समाप्त होने लगा, क्योकि इन अगशास्त्रो मे केवल पूर्व शास्त्रो का ही निचोड नही था, प्रत्युत तत्कालीन जैन धर्म का वह परिवर्तित एव सशोधित रूप भी विद्यमान था, जिसका उपदेश भगवान् महावीर ने दिया था। इस प्रकार पूर्वागमो का अध्ययन केवल पट्टधर आचार्यों तथा जैन सिद्धान्त के महामर्मजो तक ही सीमित रहा और अगशास्त्र समस्त जैन-परम्परा के अनुयायियो के पठनीय विषय वने ।3 जैनागम तथा अगशास्त्र :
'नन्दीमूत्र'४ मे श्रुतज्ञान के दो भेद किए गए है—अगप्रविष्ट तथा अगवाह्य । अगवाह्य श्रुत दो प्रकार का है-आवश्यक तथा
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१ आवश्यक नियुक्ति, श्लोक, १६२ २ जैनदर्शन, पृ० ११
अन्तगडदमाओ, प्रस्तावना, पृ० १६-१९. ४ नन्दीमूत्र, ४३