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षष्ठ अध्याय
श्रमण-जीवन
श्रमण-अवस्था
उपासकजीवन से आगे की कोटि श्रमण-अवस्था है । उपासक ग्यारहवो प्रतिमा मे प्रायः श्रमण हो जाता है, इस कारण ही उस प्रतिमा का नाम "श्रमणभूत" प्रतिमा है।' इस अंतिम प्रतिमा मे उपासक श्रमणजीवन का अभ्यास प्रारम्भ कर देता है। जब वह अपने को श्रमण-जीवन के कठोर नियमो को अच्छी तरह पालन करने के योग्य समझ लेता है, तव वह श्रमण-जीवन में प्रवेश करता है।
श्रमण-जीवन अत्यन्त कष्टसाध्य है। जैनागम मे इसकी कठोरता पर अच्छी तरह प्रकाश डाला गया है। "श्रमण-जीवन, दो हाथो से सागर को तैरने जैसा कठिन, रेत के ग्रास जैसा नीरस, तलवार की धार पर चलने जैसा महाकष्टसाध्य, लोहे के चने चबाने जैसा अशक्य, प्रज्वलित अग्नि-शिखा को पी जाने जैसा दुःसाध्य, हवा से कपड़े को थैली भरने जैसा असाध्य और तुच्छ काटे से एक लाख योजन वाले मेरुपर्वत को भेदने जैसा असम्भव है।"
वस्तुत श्रमण-जीवन इतना ही उन जीवन है । "यह मार्ग क्लीव, कापुरुष, इस लोक में आसक्त तथा परलोक से अचेत और दुरनुचर प्राकृतजनों का नही है; किन्तु धीर, वीर, निश्चलमति एवं स्थितप्रज्ञो
१ उपासकदगाग, १, ११, पृ० २६ । २ नायाधम्मकहाओ, १, २८ पृ० २७, २८ तथा उत्तराध्ययन, १९, ३६
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