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________________ १८२ ] जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास का है।"१ जो लोग कायर है, साहसहीन है, वासनाओं के दास है, इन्द्रियो के चक्कर में पड़े है और दिन-रात इच्छाओं की लहरो के थपेडे खाते रहते है, वे भला क्यो कर इस क्ष रधारासम दुर्गमपथ पर चल सकते है ? श्रमण शब्द का निर्वचन तथा समानार्थक शब्द निर्वचन-श्रमण का मूल प्राकृत शब्द "समण है । समण के संस्कृत रूपान्तर तीन होते है-श्रमरण, समन तथा शमन । श्रमणसंस्कृति का वास्तविक मूलाधार इन्ही तीन संस्कृतरूपो पर से व्यक्त होता है। "श्रमण शब्द "श्रम्" धातु से बना है, जिसका अर्थ है श्रम करना । यह शब्द प्रकट करता है कि व्यक्ति अपना विकास अपने परिश्रम द्वारा कर सकता है। सुख-दुख, उत्यान-पतन सभी के लिए वह स्वय उत्तरदायी है । "समन" का अर्थ है-समताभाव अर्थात् सबको अपने समान समझना तथा सवके प्रति समभाव रखना । दूसरो के प्रति व्यवहार की कसौटी आत्मा है। जो बात अपने को बुरी लगती है वह दूसरो के लिए भी बुरी है।' "शमन" का अर्थ है अपनी वृत्तियो को शान्त रखना । अनुयोगद्वारसूत्र मे "भावसामायिक” का निरूपण करते हुए श्रमण शब्द के निर्वचन पर प्रकाश डाला गया है-"जिस प्रकार मुझे दुख अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार संसार के अन्य सभी जीवो को दुख अच्छा नहीं लगता, यह समझ कर जो स्वय न हिंसा करता है, न दूसरो से करवाता है और न किसी प्रकार की हिसा का अनुमोदन करता है तथा सभी प्राणियो मे समत्वबुद्धि रखता है, वह श्रमण है।" मूल सूत्र मे "सममण इ" शब्द आया है। उसकी व्याख्या करते हए आचार्य हेमचन्द्र लिखते है-"अण्" धातु प्रवृत्ति के अर्थ मे है और 'सम' १. नायाधम्मकहाओ १, २८, पृ० २८ । २. सूत्रकृताग, २, २, ८१ (जैनसूत्राज भाग २, पृ० ३८७)। ३. श्रमणसूत्र, पृ० ७५,७६ । ४. अनुयोगद्वार मूत्र, उपक्रमाधिकार।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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