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पचम अध्याय : उपासक-जीवन
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मानव-जीवन नि.सार है-उपासक इस मनुष्यजीवन कोआनन्दप्रद तथा स्थायी नही मानता; किन्तु इसके विपरीत वह इसे अध्र व, अनिश्चित अशाश्वत, बिजली की तरह चंचल, जलवुवुद, कुशाग्रजलबिन्दु, संध्याकालीन लालिमा तया स्वप्नदर्शन की तरह अनित्य मानता है। वह यह भी जानता है कि मनुष्य का जीवन सड़ना, गलना, नष्ट होना आदि धर्मो से परिपूर्ण है तथा शीघ्र अथवा विलम्ब से छोड देने योग्य ही है।" बालक, बृद्ध और गर्भस्थ सभी मनुष्यो का जीवन नाशवान है। यह देखो, जैसे श्येनपक्षी वर्तकपक्षी को मार डालता है, इसी तरह आयु क्षीण होने पर मृत्यु प्राणी जीवन को नष्ट कर देती है।"
मानवीय कामभोग क्षणिक है-उपासक, मनुष्य के कामभोगो से दूर रहने का प्रयत्न करता है । यद्यपि गृहस्थावस्था के कारण वह उनसे सर्वथा पृथक् तो नही हो सकता, किन्तु उनकी वास्तविकता, दु खोत्पादकता एवं अनित्यता को जानता है। वह समझता है कि ये कामभोग अशुचि, अशाश्वत, वान्तास्रव (वमन के द्वार), पित्तास्रव, श्लेष्मास्रव, शुक्रास्रव, शोणितास्रव, मूत्र-पुरीप-पूयादि से परिपूर्ण, अध्रुव एवं अनिश्चित है तथा एक न एक दिन इन्हे अवश्य ही छोड देना पड़ेगा। महावीर ने कहा है कि-"सब वैपयिक गान विलाप है, सव नाचरंग विडम्बना है, समस्त अलंकार शरीर पर वोझ है तथा समस्त कामभोग दुःख देने वाले है।"3 "सोना, चॉदी और स्वजनवर्ग सभी परिग्रह, इस लोक तया परलोक मे दुख देने वाले तथा सभी नश्वर है। अतः इसे जानने वाला कौन पुरुष गृहवास को पसन्द कर सकता है ?"४
धनसम्पत्ति त्याज्य है-सोना, चाँदी, मणि, मौक्तिक आदि चोर, अग्नि, राजा, भाई, बन्धु एव मृत्यु द्वारा छीने जा सकते है । वे शरीर की तरह सडन, गलन आदि धर्मों से परिपूर्ण है और एक न एक दिन नष्ट होने वाले ही है।'
१ जैनसूत्राज भाग २ (सूत्रकृताग १, २, १, २ पृ० २४६) २. नायाधम्मकहाओ १, २८ पृ० २७ । ३. उत्तराध्ययन, १३, १६ ।
जैनसूत्राज भाग २, (सूत्रकृताग १, २, २, १० पृ० २५४) ५. नायाधम्मकहाओ, १, २८ पृ० २७ ।