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________________ १७८ ] जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास गृहस्थजीवन में निरन्तर सावधान उपासक जब इस प्रकार का अनुभव करने लगता है कि घर मे रह कर वह गृहस्थधर्म का पूर्ण रूप से पालन नहीं कर पाता; तव किसी दिन अपने कुटम्बिजन तथा मित्रो को घर पर बुला कर भोजनादि द्वारा सन्तुष्ट करके अपने गृह-त्याग-सम्बन्धी विचार उनके समक्ष रख देता है। कुटुम्बिजनो तथा पुत्र की स्वीकृति के बाद वह घर का समस्त भार अपने ज्येष्ठ-पुत्र को सांप कर आत्मसाधन के लिए पौपधशाला मे चला जाता है। पीपधशाला मे जाते समय वह सभी लोगो से कहता है कि आज से किसी के घर पर उसके निमित्त भोजनादि तैयार न किया जाए और न ही किसी सांसारिक कार्य मे उसकी सम्मति ली जाए।' पौपधशाला में जाने के वाद उपासक ग्यारह प्रतिमाओ का क्रम-क्रम से यथासूत्र, यथाकल्प, यथामार्ग तथा यथातत्व आराधन प्रारम्भ कर देता है । अन्तिम 'श्रमणभूत" प्रतिमा मे पहुँच कर वह लगभग साधु कासा जीवन व्यतीत करने लगता है। इस प्रकार अपने जीवन की अंतिम अवस्था तक वह पौपधशाला मे रह कर अपने कर्तव्यो का पूर्णरूप से पालन करता हुआ अपने व्यक्तित्व के विकास में तत्पर रहता है।' अत मे संल्लेखनापर्वक शाति से मरण कर सद्गति को प्राप्त होता है। उपासक की विचार-धारा श्रद्धा, मानव के व्यक्तित्व-विकास की आधारशिला है-उपासकअवस्था का प्रारम्भ निग्रन्थ-प्रवचन एवं जीवाजीवादि पदार्थों में श्रद्धा एवं विश्वास से होता है। महावीर ने कहा था कि "जैसे कोई व्यक्ति रुधिर मे रंगे वस्त्र को रुधिर से ही साफ करना चाहे तो क्या वह साफ हो सकता है ? नही, इसी प्रकार प्राणातिपात आदि से होने वाला पापो से रगा मनुष्य, मिथ्यादर्शन आदि के त्याग तथा सम्यगदर्शन (सत्यश्रद्धा) आदि के ग्रहण से शुद्ध हो सकता है।"४ १ उपासकदशाग, १, १० पृ० २५ । २. वही (अभयदेववृत्ति, १, १०, पृ० २६ । ३. वही १, १५ पृ० ३३ । ४. नायाधम्मकहाओ, ५, ६०. पृ. ७४, ७५ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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