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पचम अध्याय : उपासक-जीवन
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का क्षेत्र संकुचित हो जाता है ।' उपासक का भोजन शुद्ध तथा सात्विक होता है । कच्चे फल, अमर्यादित तया अभक्ष्य वस्तुएं उसके भोज्य नही होती । जल एवं वनस्पति को भी पूर्ण रूप से पका कर वह उन्हे अचित्तरूपमे भक्षरग करता है । __ उपासक सर्वदा आत्म-चिन्तन मे जागृत रहता है । वह व्यर्थ पापपूर्ण कार्यो को न स्वयं करता है और न किसी के करने मे, मन, वचन, अथवा कर्म से सहायता ही करता है। वह जीवन के प्रत्येक कार्य को आलस्यरहित हो कर सावधानी के साथ करता है। वह अपने शरीर के अंगो से कुचेष्टाएँ भी नहीं करता। शय्या, बिछौना अथवा अन्य आवश्यक वस्तुओ को उठाते-रखते समय वह अत्यन्त सावधानी से काम लेता है । वह उस जगह को भी पहिले से देखभाल व झाड़-पोंछ लेता है, जहाँ उन वस्तुओं को रखना है। उन वस्तुओ को रखने से पहिले भी वह उन्हें अच्छी तरह झाड़-पोछ लेता है ।
उपासक का हृदय समत्व की भावना से परिपूर्ण होता है । उसे आध्यात्मिक दृष्टि से मनुष्य, पशु अथवा जन्तुओ के मध्य कोई भेद नही दिखता । वह आत्मा को सर्वोच्च मान कर शरीर के भेद को बिलकुल भूल जाता है। इसी समत्व-भावना की प्राप्ति के लिए दिन मे तीन वार कुछ निश्चित समय के लिए एकान्त, निर्वाध स्थान में बैठ कर वह आत्मध्यान करता है। इस समय वह संसार को विलकुल ही भूल जाता है, परिग्रह से पूरा सम्बन्ध तोड देता है और कुछ समय के लिए साधुअवस्था को प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार उपासक सर्वदा धर्म के प्रति श्रद्धावान् हो कर धर्मीजनो का भी पूर्ण विनय करता है, उनका समागम प्राप्त करने की निरन्तर चेप्टा करता है और किसी साधुजन के घर आ जाने पर उन्हे उचितसम्मान दे कर ययाविधि आहार-पानी आदि देता है।
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उपासकदगाग, पृ० ११, १२ वही, १, ६, पृ० १२, १३ ।। वही, १, ६ पृ० १७ । वही,, वहीं, १, ६, पृ० १८ ।