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जैन- अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
वह आपसी व्यवहार मे विल्कुल सत्य, स्पष्ट एवं मिष्टभापी होता है, विना विचारे नही बोलता, किसी के रहस्य का भेदन नही करता, झूठा उपदेश नही देता और न ही झूठे लेख, वहीखाते या दस्तावेज लिखता है । वह ऐसा सत्य भी नही वोलता, जो अनिष्ट तथा अप्रिय हो । २
व्यापार के सम्बन्ध मे उपासक बहुत सावधान रहता है । वह ऐसे कर्म नहीं अपनाता, जिनमे सवध व अतिवध होता है । वह निषिद्ध, राष्ट्रघातक, नैतिकताविरुद्ध एव संयमघातक कर्मों द्वारा व्यापार नही करता, किन्तु न्यायोचित कार्यों द्वारा व्यापार कर अपने कुटुम्व का पालन करता है । वह चोरी की वस्तु ग्रहण नही करता और चोरो को किसी प्रकार की सहायता भी नही पहुँचाता । वह व्यापार मे राजकीय नियमो का पूर्ण ध्यान रखता है। वस्तुओं में मिलावट नही करता और न ही कम व अविक तोलता - नापता है । उसका व्यक्तिगत जीवन भी बहुत पवित्र होता है, वह दुभावर्नाओ को अपने पास फटकने नही देता । अपनी स्त्री के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों को वह माता, वहन तथा पुत्री समझता है । वह अपनी स्त्री के साथ भी अधिक कामभोग नही करता, तथा दुश्चरित्र वाले स्त्री-पुरुषो के साथ वह किसी प्रकार का सम्पर्क नही रखता ।
उपासक यह समझता है कि दुखो का कारण असंतोष है, अतः वह कम से कम वस्तु में संतुष्ट रहने का प्रयत्न करता है । वह कम से कम वस्तु के संग्रह का नियम ले कर कभी उस मर्यादा को बढाने का प्रयत्न नही करता और प्रत्येक जीवनोपयोगी वस्तु की निश्चित मर्यादा मे ही अपना जीवन व्यतीत करता है । इस प्रकार वह अपनी इच्छा और तृष्णा पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहता है
करके निरन्तर अन्तर
उपासक अपने वाह्य-जीवन को संकुचित जीवन के विकास का प्रयत्न करता है । वह वाह्य-संसार में अपने आवागमन की परिधि भी निश्चित कर लेता है और जीवनभर उसी परिधि के भीतर रहता है । अत्यावश्यक कार्य आ पड़ने पर भी परिधि - लंघन का भाव उसके मन मे उत्पन्न नही होता । इस प्रकार उसके दोषपूर्ण कार्यो
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उपासकदशाक १, ६, पृ० १० 1 २. वही, १, ६, पृ० ११ |