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पंचम अध्याय : उपासक-जीवन
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५. सामाइयस्स अणवठियस्सकरणया (सामायिकअनवस्थितकरण) यथोक्तरीति से सामायिक न करना, अव्यवस्थितरूप से करना ।
देशावकाशिक-परिग्रहपरिमाण और दिशापरिमाणवत की जीवनपर्यन्त प्रतिज्ञा को और अधिक व्यापक एव विराट् बनाने के लिए देशावकाशिक व्रत ग्रहण किया जाता है। दिव्रत मे गमनागमन का क्षेत्र सीमित कर लिया जाता है और यहाँ उस सीमित क्षेत्र को, एक दो दिन आदि के लिए और अधिक सीमित कर लिया जाता है। देशावकाशिक व्रत मे जहाँ क्षेत्र-सीमा सकुचित होती है, वहाँ उपभोगसामग्री की सीमा भी संक्षिप्त होती है। अर्थात् सीमित क्षेत्र के बाहर की सामग्री का उपभोग इस व्रत का धारी मनुष्य नही कर सकता । इस व्रत मे उपासक मन, वचन, कर्म तीनो से क्षेत्र की मर्यादा कर लेता है। फिर वह मर्यादित भूप्रदेश से वाहर की वस्तुओ को किसी के द्वारा नही मँगवा सकता, मर्यादित भूप्रदेश से बाहर किसी व्यक्ति को अपने कार्य के लिए नही भेज सकता, मर्यादित भूप्रदेश से वाहर स्थित अन्य पुरुप को शब्द-प्रयोग करके नही बुला सकता, मर्यादित भूप्रदेश से बाहर के व्यक्ति को अपना रूप आदि दिखा कर नहीं बुला सकता तथा मर्यादित भूप्रदेश से बाहर स्थित व्यक्ति को मिट्टी, पत्थर, ढेला आदि फेक कर कोई कार्य नहीं करा सकता।
इस व्रत के पाँच अतिचार है
१ आणवणप्पओगे (आनयनप्रयोग)-मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तु का मंगवाना।
२. पेसवणप्पओगे (प्रेष्यप्रयोग)-मर्यादित क्षेत्र के बाहर किसी को भेजना।
३. सदाणुवाए (शब्दानुपात)-मर्यादित क्षेत्र से बाहर के मनुष्य को शब्द-प्रयोग करके वुलाना। ___ ४ रूवाणुवाए (रूपानुपात)-मर्यादित क्षेत्र से बाहर के मनुष्य को अपना रूप दिखा कर वुलाना।
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उपासकदशाग (अभयदेवसूत्रवृत्ति) १, ६ पृ० १२