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१६६ ] जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास ___५. वहियापोग्गलपक्लेवे (वाह्यपुद्गलप्रक्षेप)-मिट्टी, पत्यर आदि फैक कर मर्यादित प्रदेश से बाहर के मनुष्य से कोई कार्य कराना ।
पौषधोपवास-यह व्रत जीवन-संघर्प की सीमा को और अधिक संक्षिप्त करता है। एक रात-दिन के लिए सचित्त वस्तुओ का, शस्त्र का, पाप-व्यापार का, भोजन-पान, शरीरभंगार तथा अब्रह्मचर्य का त्याग करना पौपधनत है। पौपधव्रतधारी की स्थिति साधु जैसी होती है। अत. पौपध मे गृहस्थोचित वस्त्र नही पहने जाते, पलंग आदि पर नही सोया जाता और स्नान भी नही किया जाता। सासारिक प्रपंचो से सर्वया अलग रह कर एकान्त मे स्वाध्याय, ध्यान तथा आत्मचिन्तन आदि करते हुए जीवन को पवित्र बनाना ही इस व्रत का उद्देश्य है । इस व्रत के पाँच अतिचार है
१ अप्पडिलेहियदुप्पडिलहियसिज्जासंथारे (अप्रतिलेखितदुष्प्रतिलेखितशय्यासंस्तार)-शय्यासंस्तार (विछौने) को विना देखे-भाले अथवा असावधानतापूर्वक देखभाल कर करना ।
२ अप्पमज्जियदुप्पमज्जियसिज्जासंथारे (अप्रमाजितदुष्प्रमाजितशय्यासंस्तार)--विना बाड-पोछ किए अथवा असावधानतापूर्वक झाड़ पोंछ कर शय्यासंस्तार का विछाना । __ ३ अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहियउच्चारपासवणभूमि (अप्रतिलेखितदुष्प्र तिलेखितउच्चारप्रस्रवणभूमि)-विना देखेभाले अथवा असावधानी से देखभाल कर, मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करना।
४ अप्पमज्जियदुप्पमजियउच्चारपासवणभूमि (अप्रमाजितदुष्प्रमाजितउच्चारप्रस्रवणभूमि)-स्थान को विना झाड-पोछ किए अथवा असावधानी से झाड-पोछ कर मूत्रपुरीपोत्सर्ग करना ।
५ पोसहोववासस्स संम्म अणणुपालणया (पौषधोपवाससम्यगननुपालना)-पीपधोपवास का नियमानुकूल पालन नही करना । ।
यथासंविभाग-यदि परिग्रह का उपयोग केवल अपने ही तक सीमित रहता है तथा वह जनकल्याण से प्रयुक्त नही होता तो महा
१. उपासकदगांग, (अभयदेवमूत्रवृत्ति), १, ६, पृ० १८, १६ । २. वही, १, ६ पृ० १६ ।