________________
पचम अध्याय उपासक-जीवन
[ १५७
नहीं रखता तथा दूसरो के वैवाहिक सम्वन्ध नही कराता । इस व्रत का विधान मानसिक पवित्रता को लक्ष्य मे रख कर किया गया है। अतः किसी भी प्रकार की मन में अमर्यादित कामभोग की भावना का पैदा होना इस व्रत के नाश का कारण है । जो उपासक उपयुक्त मर्यादाओ के पालन मे शिथिलता करता है ; उसका व्रत निर्दोष नहीं कहा जा सकता। . स्वदार-संतोपवत के पाँच अतिचार है - १ इत्तरियपरिग्गहियागमणे ( इत्वरपरिगृहीतागमन )-धनादि
दे कर कुछ काल के लिए रखी हुई स्त्रियो से व्यभिचार करना । अपरिग्गहियागमणे (अपरिगृहीतागमन)---विधिवत् विवाह न
हुआ हो, उस के साथ व्यभिचार करना। ३ अणंगकीडा (अनंगक्रीडा)-कामसेवन से भिन्न अगो द्वारा
कामसेवन करना। परिविवाहकरणे (परविवाहकरण)-अपनी संतान को छोड़
अन्य लोगो के विवाह कराना। ५ कामभोगतिव्वाभिलासे (कामभोगतीवाभिलापा)-काम-भोग
की तीव्र अभिलापा रखना।' इच्छापरिमाणवत-परिग्रह भी एक बहुत वडा पाप है । परिग्रह मानव-समाज की मनोभावना को उत्तरोत्तर दूषित करता है और किसी प्रकार का भी स्वपरहिताहित का विवेक नही रहने देता । सामाजिक - विषमता, संघर्ष, कलह एवं अशाति का प्रधान कारण परिग्रहवाद ही है। अत स्व और पर की शाति के लिए अमर्यादित स्वार्थवृत्ति एवं संग्रहवुद्धि पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है। इस व्रत का नाम इच्छाविधिपरिमाणवत है, जो इस बात की ओर संकेत करता है कि अशाति का कारण परिग्रह नही, परिग्रह की इच्छा है। अत. इच्छा को मर्यादित करना ही वास्तविक परिग्रह-परिमाण है। __एक व्यक्ति अकिचन हो कर परिग्रही हो सकता है और वह अपनी संग्रह-बुद्धि के कारण निरन्तर दुखी रह सकता है, जबकि अन्य व्यक्ति अपने पास बहुत धन-सम्पत्ति के होते हुए भी उसमे तृष्णा एवं
१
उपासकदगांग, (वृत्ति, अभयदेव) १,६ पृ० १३ ।