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________________ १५८ ] जैन- अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास अभिलाषा के त्याग के कारण अपने को निरन्तर सुखी अनुभव करता है । इस व्रत का धारक उपासक अपने जीवन मे प्रयोग में आने वाली प्रत्येक वस्तु की उस संख्या का परिमाण निश्चित कर लेता है, जिससे अधिक वह अपने जीवन मे संग्रह नही करता । इस व्रत मे यह वात ध्यान देने योग्य है कि वस्तुओं के संग्रह से मुक्ति पा लेने के बाद भी यह नही कहा जा सकता कि उपासक ने व्रत को निर्दोषरूप मे ग्रहण कर लिया है, क्योकि इस व्रत का अभिप्राय इच्छा के नियंत्रण से अधिक, और वस्तु के संग्रह पर नियन्त्रण से कम है। वास्तव मे परिग्रह की इच्छा ही परिग्रह है; क्योकि दुख का कारण इच्छाएँ है, वस्तु नही । अतः उपासक को परिग्रह मे मूर्च्छित बुद्धि की शुद्धि का प्रयत्न करना चाहिए । इस व्रत को धारण करने वाला उपासक क्षेत्र तथा मकान आदि के प्रमारण का उल्लंघन नही करता, सोना चाँदी, पशु, धन, धान्य तथा गृहोपकरण आदि के भी प्रमारग का उल्लंघन नही करता । जो उपासक उपर्युक्त मर्यादाओ के पालन मे शिथिलता करता है, उसका व्रत निर्दोष नही कहा जा सकता । इच्छाविधि परिमाणव्रत के पाँच अतिचार है १ खेत्तवत्थु पमाणाइक्कमे ( क्षेत्रवस्तुप्रमाणातिक्रम ) - जीवनपर्यन्त के लिए किए गए क्षेत्र तथा वस्तुओ के प्रमाण को बढा लेना । १ २ हिरण्णसुवण्णपमाणाइकम्मे ( हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम ) - सोने-चांदी के प्रमाण को बढा लेना । - ३. दुप्पयचउप्पयप्पमाणाइक्कमे ( द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रम ) दोपाये तथा चौपाये प्राणियो सम्वन्धी प्रमाण को वढा लेना । ४ घणघण्णपमाणाइक्कमे ( धनधान्यप्रमाणातिक्रम ) - धन-धान्य के प्रमाण को बढ़ा लेना । ५ कुवियप्पमाणाइक्कमे ( कुप्यप्रमाणातिक्रम ) - गृह — सामग्री के प्रमाण को बढ़ा लेना । १. उपासकदगांग, १, ६, पृ० ११ - १३ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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