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जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
इतना ही नही, वह कभी भी चोरी की गई वस्तु को ग्रहण नही करता । चोर की रक्षा अयवा सहायता भी वह नहीं करता । आज्ञा के विना अपने राज्य से विरुद्ध कार्य या राज्य की सीमा मे वह प्रवेश नही करता तथा झूठी तराजू और झूठे वॉट भी नहीं रखता। वह शुद्ध वस्तु मे अशुद्ध का सम्मिश्रण करके नही बेचता।
जो उपासक उपयुक्त मर्यादाओ के पालन मे शिथिलता करता है उसका व्रत निर्दोप नही कहा जा सकता । स्थूल-अदत्तादान विरमरणव्रत के पाँच अतिचार है१ तेणाहडे (स्तेनाहृत)-चोर द्वारा लाई हुई वस्तु का ग्रहण
करना। तक्करपओगे (तस्करप्रयोग)-चोरी का उपाय बताना । विरुद्धरज्जाइक्कमे (विरुद्धराज्यातिक्रम)-विरोधी राजा के राज्य की सीमा का उल्लंघन करना । कूडतुलकूडमाणे (कूटतुलाकूटमान)-वस्तु के बेचने, खरीदने के प्रमाणो (तराजू, वाँट आदि) को कम-वढ रखना। तप्पडिरूवगव्ववहारे (तत्प्रतिरूपकव्यवहार )-अधिक मूल्य वाली वस्तु मे उसके समान कम मूल्य वाली वस्तु मिला कर बेचना ।
२. तक्कम
३
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स्वदारसंतोष-अपनी परिणीता स्त्री मे ही पूर्ण संतोप रख कर अन्य स्त्रियो के साथ मन, वचन तया काय से जीवन-पर्यन्त मैथुन सेवन करने तथा करवाने का त्याग स्वदारसंतोष-व्रत है। इस व्रत मे जहाँ अन्य स्त्रियो के साथ कामविधि के त्याग का नियम है, वहाँ अपनी स्त्री के साथ भी अतिकामुकता के त्याग की प्रतिज्ञा है।
इस व्रत का उपासक व्यक्ति, वेश्या अथवा किसी दूसरे की स्त्री अथवा लडकी के साथ व्यभिचार नही करता, काम-सेवन के अंगो से भिन्न अगो द्वारा कामक्रीडा नहीं करता, काम- सेवन मे तीव्र अभिलाषा
१ उपासकदशाग, (वृत्ति, अभयदेव) १, ६, पृ० ११-१३ । २. वही, १, ५, पृ०५।