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________________ पंचम अध्याय उपासक-जीवन [ १५५ हो जाने पर उसे प्रकट नही करना चाहिए तथा अपने कौटुम्बिक जन, मुख्यत. अपनी स्त्री के रहस्य को अन्य से प्रकट नही करना चाहिए। झूठा उपदेश देने तथा झूठे लेख लिखने और लिखाने से भी उपासक को दूर रहना चाहिए। __ जो उपासक उपर्युक्त मर्यादाओ के पालन मे शिथिलता करता है; उसका व्रत निर्दोप नही कहा जा सकता। स्थूलमृपावादविरमण व्रत के पॉच अतिचार है१. सहसभक्खाणे (सहसाभ्याख्यान)-विना सोचे-समझे किसी भी वात का कहना। रहसभक्खाणे (रहस्याभ्याख्यान)-किसी के रहस्य का प्रकट कर देना। सदारमंतभेए (स्वदारमन्त्रभेद)-अपनी स्त्री की गुप्त बातो को प्रकट कर देना। मोसोवएसे (मृषोपदेश)-झूठा उपदेश देना । ५. कुडलेहकरणे (कूटलेखकरण ) - झूठा लेख (दस्तावेज) या झूठे वहीखाते लिखना।' स्थूलअदत्तादान-विरमण-अचौर्य का साधारण अर्थ चोरी नही करना है, किन्तु इसका तात्विक अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे के अधिकारो पर आघात नहीं करना चाहिए । अचौर्य जहाँ चोरी के त्याग को वतलाता है, वहीं पर पारस्परिक सेवा, सहायता एवं सद्भावना की ओर भी संकेत करता है। चोरी किसी भी वस्तु के अपहरणमात्र को ही नहीं कहते, किन्तु हृदय मे परद्रव्य के प्रति आकर्षण पैदा होना अथवा चोरी के कार्य मे थोडी-सी भी सहयोग की भावना पैदा होना चोरी है । उपासक मन, वचन, काय से जीवन-पर्यन्त इस प्रकार की चोरी करने तया किसी अन्य के द्वारा करवाने के त्याग की प्रतिज्ञा करता है ।२ or १. उपासकदशाग (वृत्ति, अभयदेव) १, ६, पृ० ११ । २. वही, १, ५, पृ० ५।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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