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जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास.
१ वध (वध)-पशुओ को कठोर वन्धनो से वाँधना ।
२ वह (वध)-उनको लाठी आदि से पीटना। ___३. छविच्छेए (छविच्छेद)-उनकी नासिका आदि अंगो को छेदना।
४. अइभार (अतिभार)-उनके ऊपर अधिक भार लादना ।
५ भत्तपाणविच्छेद (भक्तपानविच्छेद)-उनको यथासमय भोजन व पानी न देना । __स्थूलमृषावादविरमण-अहिसा और सत्य का निकट सम्बन्ध है, अथवा यो कहिये कि अहिंसा के बिना सत्य और सत्य के बिना अहिसा जीवित ही नहीं रह सकती। भगवान महावीर ने अहिसा को भगवती और सत्य को भगवान् कहा है। सत्य का आदर्श जितना ही ऊंचा होगा, मनुप्य का व्यक्तित्व उतना ही उच्च होगा और वह उतनी ही मात्रा मे समाज को वर्तमान दुश्चक्र से निकाल कर विवेक तथा नैतिकता के ऊंचे स्तर पर स्थापित कर सकेगा।
सत्याणुव्रतधारी उपासक जीवनपर्यन्त मन, वचन तथा काय से न किसी प्रकार का झूठ स्वयं वोलता है और न किसी अन्य के द्वारा बुलाता है। ___अहिंसाणुव्रत की तरह सत्यारणुव्रत भी निषेधात्मक नही है। किन्तु इसका विधेयात्मक रूप भी है। सत्य, जहाँ झठ का त्याग है, वहाँ प्राणिमात्र से स्नेह-परिपूर्ण मिष्ट-भाषण का भी द्योतक है । असत्यभापण से मनुष्य का जीवन हमेशा शंका एवं भय से परिपूर्ण रहता है और पग-पग पर उसे कप्ट का अनुभव करना पडता है। किन्तु सत्यभाषणशील व्यक्ति सर्वदा अभय एवं निशंक जीवन व्यतीत करता हुआ अपने तथा समाज के कल्याण मे तत्पर रहता है। ___ इस व्रत के पूर्ण पालन के लिए यह आवश्यक है कि उपासक किसी भी वात को खूब सोच-समझने के बाद ही कहे । सहसा किसी भी व्यक्ति पर दोपारोपण नही करना चाहिए, किसी भी व्यक्ति का रहस्य मालूम
१ उपासकदशाग १, ६, पृ० १० । २. वही, १.