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________________ - पचम अध्याय • उपासक-जीवन [ १५३ नही रहना भी हिंसा है । अन्य प्राणी की मृत्यु हो अथवा न हो, किन्तु प्रयत्न करने वाले प्राणी के हृदय की अपवित्रता अथवा प्रमादीपन हिसा का द्योतक है। प्राणी की हिसा हो जाने पर भी यदि अप्रमाद है, तो वह हिसा नहीं कही जा सकती। अहिसा का लक्षण-उपर्य क्त प्रकार की हिसा से विरति अहिंसा है। यह अहिंसा केवल निषेधात्मक ही नही है। किन्तु इसका विधेयात्मक रूप भी है। उपासक की अहिसा राष्ट्रो की आतरिक शासन-प्रणाली मे आमूल परिवर्तन तथा सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्थाओ. मे संशोधन की ओर सकेत करती है। पारिवारिक, कौटुम्विक और जातीय जीवन के निर्माण मे बहुत मात्रा में सहानुभूति, परस्पर सहायता, स्नेह, त्याग और एकनिष्ठा की भावनाओ की आवश्यकता रहती है, जो कि अहिसा के ही रूप है । वास्तव मे अहिसा के सिद्धान्त का यह अर्थ है कि समस्त-जीवन वलप्रयोग के स्तर से ऊँचा उठा कर विवेक, विनय, सहनशीलता और पारस्परिक सेवा के स्तर पर प्रतिष्ठित किया जाए। ___ अहिसाणुव्रत का धारक उपासक जहाँ मनुष्यमात्र के प्रति प्रगाढ़ स्नेह एवं सहायता की भावना से ओतप्रोत रहता है, वहाँ वह पशुजाति के प्रति भी अत्यन्त सहानुभूतिपूर्ण होता है । वह गाय, भैस आदि पशुओ को कठोर बन्धनो से नही वॉधता, उन्हे लकड़ी से नही पीटता, उनकी नासिका आदि अंगो का छेदन नहीं करता, उनके ऊपर शक्ति से अधिक भार नही लादता और उनके खाने, पीने के समय का उल्लघन न करते हुए उन्हे पूर्ण भोजन देता है। जो उपासक उपयुक्त मर्यादाओ के पालन मे शिथिलता करता है; उसका व्रत निर्दोष नही कहा जा सकता । व्रतो की निर्दोपता को ध्यान मे रख कर प्रत्येक व्रत के पाँच-पाँच अतिचार कहे गए है। उपासक के जो कार्य व्रत मे दूपण लगाते है; वे अतिचार कहलाते है । “स्थूल प्राणातिपातविरमण" के पाँच अतिचार है १. "प्रमाद और उसके कारण कामादि मे आसक्ति ही हिंसा है।" आचाराग, १, १, ३४-३५ । २. उपासकदगाग, १, ५, पृ० ५।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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