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जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
गहस्थ-धर्म इस कारण कहा जाता है कि इन व्रतो का पालन, उपासक गृहमे रह कर ही करता है। अन्य व्रतो का पालन करने के लिए उपासक को घर छोड कर पोपधशाला मे जाना पडता है।'
अणुव्रत-उपासक के हिसादि पापो से विरत होने को अणुव्रत कहते है । उपासक गृहस्थ होने के कारण पापो से पूर्णतया विरत नही हो सकता, इस कारण उसके व्रत अणुव्रत कहलाते है । अणु का अर्थ 'लघु' है । इन व्रतो मे लघुता महाव्रतो की महत्ता की अपेक्षा से है, किसी अन्य अपेक्षा से नही । अणुव्रत पाँच प्रकार के है
१ थूलातो पाणाइवायातो वेरमण (स्थूलप्राणातिपातविरमण) २ थूलातो मुसावायातो वेरमण (स्थूलमृषावादविरमण) ३. थूलातो अदिन्नादाण-वेरमणं (स्थूलअदत्तादानविरमण) ४ सदारसतोसे
(स्वदारसतोष) ५ इच्छापरिमाणे
(इच्छापरिमाण) स्थूलप्राणातिपातविरमण-अहिसा आध्यात्मिक जीवन की आधारभूमि है । वह एक सर्वव्यापी सिद्धान्त है । यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो साधक केवल अहिंसा की साधना मे ही तल्लीन रहता है। अहिसा व्रत मे उपासक अथवा श्रमण के सभी व्रत गभित हो जाते है। सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-व्रतो की साधना भी अहिसा पर अवलम्बित है और वास्तव मे अन्य सभी व्रत अहिसा-व्रत के ही विस्तार है।
"मैं जीवनपर्यन्त मन, वचन, काय से स्थूल हिसा न करूंगा, और न किसी अन्य द्वारा कराऊ गा(' यह अहिसाणुव्रत का स्वरूप है।
हिंसा का लक्षण -जैनधर्म मे क्रिया की अपेक्षा भावना की प्रधानता है । अत किसी प्राणी को जीवन से वियुक्त कर देना ही हिसा नही है; अपितु अन्य प्राणी के जीवन-सरक्षण के प्रति हृदय मे असद्भावना पैदा होना ही हिसा है। प्रमादी हो कर किसी अन्य प्राणी के प्रति सावधान
१ नायाधम्मकहाओ, १, ६०, पृ०, ७४ ।
स्थानाग सूत्र, ३८६, तथा सूत्रवृत्ति, पृ० २७७ (अ) उपासकदशाग, १, ५, पृ० ५,