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पचम अध्याय . उपासक-जीवन
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से सम्बोधित करते ? क्यो उत्तराध्ययन-सूत्र मे यह कहा जाता कि"कुछ भिक्षुओ की अपेक्षा गृहस्थ सयम की दृष्टि से श्रेष्ठ है और गृहस्थदशा मे रहते हुए भी साधक सुव्रत हो जाता है।' __यह ठीक है कि गृहस्थ का धर्म क्षुद्र है, साधु जैसा महान नहीं है, परन्तु यह क्षुद्रता साधु के महान् जीवन की अपेक्षा से है। अन्य साधारण कामनाओ के दलदल में फंसे संसारी मनुष्यो की अपेक्षा तो एक धर्माचारी सद्गृहस्थ का जीवन महान् ही है, क्षुद्र नहीं।
उपासक यदि गृहस्थ-धर्म मे पूर्ण-रूप से सावधान है तो साधु उसकी विनय करते है और साधुओ के द्वारा उपासक का किसी प्रकार अविनय हो जाने पर वे उपासक से क्षमायाचना भी करते है। उपासकदशाग मे वर्णन है कि 3-"श्रमणोपासक आनन्द को आत्मविशुद्धि के कारण ५०० योजन दूर जानने योग्य अवधिज्ञान पैदा हुआ। उसने श्रमण गौमत के सामने अपने अवधिज्ञान उत्पन्न होने की बात कही। गौतम ने आनन्द से कहा कि गृहस्थ को अवधिज्ञान तो हो सकता है किन्तु इतने विस्तृत क्षेत्र वाला नही, जितना कि तुम कह रहे हो । अत. तुम असत्य-भाषण की आलोचना (गुरु के समक्ष अपराध-निवेदन) तथा प्रतिक्रमण (दण्डग्रहण) करो। आनन्द ने कहा कि 'मै सत्य कह रहा हूँ अत मुझे नही; किन्तु आपको ही आलोचना और प्रतिक्रमण करना चाहिए, गौतम को आनन्द के वचनो मे शंका हुई और वे भगवान महावीर के निकट पहुँचे तथा उनसे पूछा । महावीर ने कहा कि''गौतम, आनन्द सत्य कहता है । अत तुम्हे आलोचना तथा प्रतिक्रमणपूर्वक आनन्द से क्षमायाचना करना चाहिए।" भगवान् की वात सुन कर गौतम ने आनन्द से क्षमायाचना की। उपासकअवस्था में सम्यगदर्शन-ज्ञान-चारित्र का महत्त्व
सम्यग्दर्शन-आध्यात्मिक-विकास-क्रम मे उपासक की अवस्था चौथी है। इसे चतुर्थ गुणस्थान भी कहते है। इसके पहिले के तीन
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उत्तराध्ययन ५, २० । स्थानागसूत्र-वृत्ति, ३८६, पृ० २७७ (अ) उपासकदगाग (अभयदेववृत्ति) १, १२–१४, पृ० २६-३३ । "चौदह गुणस्थानो मे चतुर्थ गुणस्थान, अविरतसम्यग्दृष्टि है।"
समवायाग १४