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जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
गुणस्थान सत्य के प्रति अनास्था एवं असत्य के प्रति गाढश्रद्धा से परिपूर्ण होते है । यह अवस्था सम्यग्दर्शन के साथ प्रारम्भ होती है। सम्यग्दर्शन का अर्थ है, "सत्य के प्रति दृढ विश्वास।” मनुष्य के जीवन मे आचरण एव ज्ञान की अपेक्षा विश्वास का अधिक महत्त्व है; क्योकि विश्वासहीन मनुष्य के हृदय मे न तो ज्ञान की ओर झुकाव हो सकता है और न आचरण की ओर उन्मुखता ।'
जैनागम मे सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान, और सम्यकचारित्र को मुक्ति का मार्ग कहा गया है । इन तीनो मे सम्यगदर्शन की प्रधानता कही गई है। उपासकजीवन का आरम्भ हृदय मे सत्य के प्रति दृढ आस्था उत्पन्न हो जाने के साय ही हो जाता है । इसी को सम्यक्त्व भी कहते है । यह श्रद्धा अन्धश्रद्धा नही है, अपितु वह प्रकाशमान जीवित श्रद्धा है, जिसके प्रकाश मे जड को जड एवं चैतन्य को चैतन्य समझा जाता है, तथा संसार, मोक्ष, धर्म, अधर्म, सभी का ज्ञान हो जाता है। वस्तुत विवेकवुद्धि का जागृत हो जाना ही सम्यक्त्व है । इसे तत्त्वार्थश्रद्धान भी कहते हैं। अनन्तकाल से हम यात्रा तो करते चले आ रहे है, किन्तु उसका गन्तव्य लक्ष्य स्थिर नहीं हुआ था, इस लक्ष्य का स्थिरीकरण सम्यक्त्व के द्वारा होता है ।३।।
जाताधर्मकथा सूत्र मे सम्यक्त्व को रत्न की उपमा दी गई है । अनन्तकाल से दीन-हीन, दरिद्र भिखारी के रूप मे भटकता हुआ आत्मदेव सम्यक्त्वरत्न पाने के बाद आध्यात्मिक धन का स्वामी हो जाता है। सम्यक्त्वी की प्रत्येक क्रिया निराले ढग की होती है। उसका सोचना, समझना, बोलना और करना सव कुछ विलक्षण होता है । वह संसार मे रहता हुआ भी ससार से निविण्ण हो जाता है।
सम्यग्दर्शन के साथ ही साथ उपासक के हृदय मे धर्म के प्रति शकाशीलता का सर्वदा के लिए नाश हो जाता है। उसे इस बात का पूर्ण निश्चय हो जाता है कि आत्मविकास के लिए धर्म के अतिरिक्त
१. स्थानाग, ७०। २ वही, ४३, १५७ । ३. "हम कहाँ से आए है ? कहाँ जावेगे? इसका ज्ञान साधारण प्राणियो
को नहीं होता।" आचाराग, १, १, १--४ ।