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________________ १४४ ] जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास घिर जाता है तव अथवा यो भी, वह खाना-पीना छोड देता है तथा अपने किए पापकर्मो को गुरु के सामने निवेदन करके उनका प्रायश्चित्त स्वीकार करने समाधियुक्त होता है और आयुष्य पूर्ण होने पर मृत्यु को को प्राप्त कर महाऋद्धि और महाद्युति से युक्त देवलोको मे से किसी देव-लोक मे जन्म लेता है। यह स्थान आर्य है, शुद्ध है, संशुद्ध है और सब दु खो को क्षय करने का मार्गरूप है।" उपासक-अवस्था का महत्त्व उपासक-अवस्था साधक की विरताविरति अवस्था है। इस अवस्था मे व्यक्ति पूर्ण मनोयोग से सासारिक हिसादि-परिपूर्ण क्रियाओ से विरत होने का प्रयत्न तो करता है किन्तु गार्हस्थिक परिस्थितियाँ उसे पूर्ण विरत नही होने देती । मन से विरत किन्तु शरीर से अविरत यह व्यक्ति मिश्र अवस्था मे झूलता रहता है। धर्म में क्रिया से अधिक भावना का महत्व है; अतः मिश्र अवस्था मे रहने वाला व्यक्ति भी आत्मविकास की ओर निरन्तर बढता रहता है । "जो अविरति से युक्त है वही स्थान हिंसा का है और त्याज्य है । जो विरति का स्थान है वही अहिसां का - है और स्वीकार करने योग्य है । जिसमे कुछ विरति और कुछ अविरति है वह स्थान हिसा और अहिसा दोनो का है तो भी यह विरताविरत रूप मिश्र-धर्म भी आर्य है, सशुद्ध है और सव दु खो का क्षय करने वाला है।"१ कुछ लोग गृहस्थधर्म को निन्द्य तथा हेय बताते है । उनका कहना है कि गृहस्थजीवन जिधर देखो उधर ही पापो से भरा हुआ है, उसका प्रत्येक आचरण पापमय है, विकारमय है, उसमे धर्म कहाँ ? परन्तु ऐसा मानने वाले लोग सत्य की गहराई तक नहीं पहुंच पाये है। यदि सदाचारी गृहस्थ-जीवन वस्तुतः निन्द्य तथा हेय होता तो जैन-सस्कृति के प्राण-प्रतिष्ठापक श्रमण-भगवान् महावीर धर्म के दो भेदो मे गहस्व-धर्म की गणना क्यो करते ? क्यो उच्च सदाचारी गृहस्थी को श्रमण के समान मानते हुए उनको “समणभूए" (श्रमणभूत२) शब्द १. जैनसूत्राज् भाग २ (सूत्रकृताग, २, २, ७८, पृ० ३८४, ३८५) २. समवायांग, ११।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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