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पचम अध्याय : उपासक-जीवन
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अपने विरोधी प्रतिद्वन्द्वी लोगो से संघर्ष करना पड़ता है, किन्तु शान्ति एवं अहिंसा के साथ, जीवनयात्रा के लिए कुछ न कुछ शोपण का मार्ग अपनाना होता है, किन्तु न्याय एवं नीति के साथ; तथा परिग्रह का जाल भी बुनना पड़ता है, किन्तु इच्छाओ के निरोध के साथ । उपयुक्त परिस्थितियों मे वह पूर्णतया निरपेक्ष, अखण्ड अहिसा एव सत्यरूप साधु-धर्म का पालन करने में अपने को असमर्थ पाता हुआ अहिंसा और सत्य के एकदेशपालनरूप उपासकधर्म को स्वीकार करता है।
___ मूत्रकृताग मे उपासकजीवन का संक्षेप मे बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है ।' .--"कितने ही श्रमणोपासक जीव और अजीव तत्त्वो के सम्बन्ध मे जानते हैं, पाप-पुण्य के भेद को जानते है, कर्म आत्मा में प्रवेश क्यो करते है (आव), और कैसे रोके जा सकते है (संवर), उनके फल कैसे होते है और वे कैसे नष्ट हो सकते है (निर्जरा), क्रिया किसे कहते है, उसका अधिकरण क्या है, बंध और मोक्ष किसे कहते है, यह सव जानते है । किसी अन्य की सहायता न होने पर भी देव, असुर, राक्षस या किन्नर आदि उनको उनके धर्म से विचलित नहीं कर सकते । उनको जैन सिद्धान्त मे शका, काक्षा (विषयो की इच्छा) और विचिकित्सा (ग्लानि) नहीं होती। वे जैन सिद्धान्त का अच्छी तरह अर्थ समझ कर निश्चित-मति होते है । उनको विश्वास होता है कि यह जैन सिद्धान्त ही अर्थ और परमार्थरूप है, और दूसरे सव अनर्थरूप है। उनके घर के द्वार आगे निकले हुए होते है। उनके दरवाजे अभ्यागतो के लिए खुले रहते है। उनमे, दूसरो के घर मे या अन्त पुर में घुस पड़ने की इच्छा नहीं होती। वे चतुर्दशी, अप्टमो, अमावस्या और पूर्णिमा को पूर्ण पौषध व्रत (उपवास) विधिपूर्वक करते है। वे निग्रथ श्रमणो को निर्दोष खान-पान, मेवा-मुखवास, वस्त्र-पात्र, कम्बल, रजोहरण, औषध, सोनेवैठने को पाट, शय्या और निवास के स्थान आदि देते है। वे अनेक शीलव्रत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यानव्रत, पौपधोपवास आदि तपकर्मो द्वारा आत्मा को वासित करते हुए रहते हैं।
"इस प्रकार की चर्या से बहुत समय जीवन व्यतीत करने पर जब उस श्रमणोपासक का शरीर रोग, वृद्धावस्था आदि विविध संकटो से
१. सूत्रकृताग, २, २, ७५-७७, पृ० ३८१-३८४, (जैनसूबाज भाग २)