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चतुर्थ अध्याय · मानव-व्यक्तित्व का विकास
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गुणस्थान केवल क्षपकश्रेणि का है। ये सभी गुणस्थान क्रमश होते है और शुभ ध्यान मे मग्न मुनियो के ही होते है।
(८) निवृत्तिवादर-इस गुणस्थान का नाम "अपूर्वकरण" भी है। करण शब्द का अर्थ परिणाम है और जो पहिले नही हुए है उन्हे अपूर्व कहते है । सुध्यान मे मग्न जिन मुनियों के प्रत्येक समय मे अपूर्व-अपूर्व परिणाम-भाव होते है। उन्हे अपूर्वकरण गुणस्थान वाला कहा जाता है । इस गुणस्थान मे न तो किसी कर्म का उपशम होता है और न क्षय होता है, किन्तु उसके लिए तैयारी होती है । इस गुणस्थान मे जीव के भाव प्रतिसमय उन्नत से उन्नततर होते चले जाते है।
(E) अनिवृत्तिवादर-इस गुणस्थान का नाम “अनिवृत्तिबादर साम्पराय" भी है । समान-समयवर्ती जीवो के परिणामो मे कोई भेद न होने को अनिवृत्ति कहते है । अपर्वकरण की तरह यद्यपि यहाँ भी प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व परिणाम ही होते है। किन्तु अपूर्वकरण मे तो एक समय मे अनेक परिणाम होने से समानसमयवर्ती जीवो के परिणाम समान भी होते है और असमान भी होते है। परन्तु इस गुणस्थान मे एक समय मे एक ही परिणाम होने के कारण समान समय मे रहने वाले सभी जीवो के परिणाम समान ही होते है। उन परिणामो को अनिवृत्तिकरण कहते है । और बादरसाम्पराय का अर्थ "स्यूलकषाय" होता है । इस अनिवृत्तिकरण के होने पर ध्यानस्थ मुनि या तो कर्मों को दवा देता है या उन्हे नष्ट कर डालता है । यहाँ तक के सब गुणस्थानो मे स्थूल-कषाय पाई जाती है, यह बतलाने के लिए इस गुणस्थान के नाम के साथ "वादरसाम्पराय" पद जोडा गया है।
(१०) सूक्ष्मसाम्पराय-उक्त प्रकार के परिणामो के द्वारा जो ध्यानस्थ मुनि कषाय को सूक्ष्म कर डालते है; उन्हे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान वाला कहा जाता है।
(११) उपशांतमोह-इस गुणस्थान का नाम "उपशातकषाय वीतराग छद्मस्थ" भी है। उपशमश्रेणी पर चढने वाले ध्यानस्थ मुनि जव उस सूक्ष्म कषाय को भी दवा देते है तो उन्हे उपशातकपाय कहते है। पहिले लिख आए है कि आगे बढने वाले ध्यानी मुनि आठवे गुणस्थान से दो श्रेणियो मे बँट जाते है। उनमे से उपशमश्रेणी वाले मोह को