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जैन - अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिले हुए परिणामो को सम्यग् - मिथ्यादृष्टि कहते है ।
(४) अविरतसम्यग्दृष्टि - जिस जीव की दृष्टि अर्थात् श्रद्धा समीचीन होती है उसे सम्यग्दृष्टि कहते है । और जो जीव सम्यग्दृष्टि तो होता है, किन्तु सयम नहीं पालता, वह अविरत सम्यग्दृष्टि कहा जाता है । आगे के सब गुणस्थान सम्यग्दृष्टि के होते हैं ।
(५) विरताविरत - जो संयत भी हो और असंयत भी हो उसे विरताविरत कहते है । अर्थात् जो त्रसजीवो की हिसा का त्यागी हैं और यथाशक्ति अपनी इन्द्रियो पर भी नियंत्रण रखता है उसे विरताविरत कहते हैं । गृहस्थ का जो चरित्र बताया गया है वह विरताविरत का ही चरित्र है । व्रती गृहस्थो को विरताविरत कहते है । इस गुणस्थान से आगे के जितने गुणस्थान है, वे सब सयम की ही मुख्यता से होते है ।
(६) प्रमत्तसयत जो पूर्ण संयम को पालते हुए भी प्रमाद के कारण उसमे कभी-कभी कुछ असावधान हो जाते है उन श्रमणो को प्रमत्तसंयत कहते है |
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(७) अप्रमत्तसयत - जो प्रमाद के न होने से अस्खलित संयम का पालन करते है, शुभ ध्यान मे मग्न उन मुनियों को अप्रमत्तसंयत कहते है | सातवे गुणस्थान से आगे दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती है -१ उपशमश्रेणी और २ क्षपकश्रेणी । श्रेणी का मतलब है पंक्ति या कतार । जिस श्रेणी पर जीव कर्मो का उपशम करता हुआ चढता है, उसे उपशमश्रेणी कहते है और जिस श्रेणी पर कर्मों को नष्ट करता हुआ चढता है, उसे क्षपकश्रेणी कहते है । प्रत्येक श्रेणी मे चार-चार गुणस्थान होते है। आठवाँनववॉ और दसवाँ गुणस्थान उपशम श्रेणी मे भी सम्मिलित है और क्षपक श्रेणी मे भी सम्मिलित है । ग्यारहवाँ गुणस्थान केवल उपशमश्रेणी का है और बारहवाँ गुणस्थान केवल क्षपकश्रेणि का है ।
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" प्रमादी पुरुष को चारो ओर से भय रहता है और अप्रमादी पुरुष चारो ओर से निर्भय हो जाता हे ।" आचाराग, १, १, १२३, ।' प्रमादी पुन - पुन. गर्भ मे आता है ।" आचाराग, १, १ १०९ ।