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चतुर्थ अध्याय मानव-व्यक्तित्व का विकास
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पहिले कहे गये ८ कर्मो मे से सबसे प्रबल मोहनीय कर्म है । यह कर्म ही आत्मा की समस्त शक्तियों को विकृत करके न तो उसे सच्चे मार्ग का भान होने देता है और न उस पर चलने देता है । किन्तु ज्यो ही आत्मा के ऊपर से मोह का परदा हटने लगता है, त्यो ही उसके गुण विकसित होने लगते हैं । अत इन गुणस्थानो की रचना मे मोह के चढाव और उतार का ही ज्यादा हाथ है । इनका स्वरूप सक्षेप मे क्रमश इस प्रकार है ।
(१) मिथ्यादृष्टि - मोहनीय कर्म के एक भेद - मिथ्यात्व' के उदय से जो जीव अपने हिताहित का विचार नही कर सकते, अथवा विचार कर सकने पर भी जिन्हे हिताहित का ठीक ज्ञान नही होता, वे जीव मिथ्यादृष्टि कहे जाते हैं । जैसे ज्वरग्रस्त व्यक्ति को मधुर रस भी अच्छा मालूम नही होता, वैसे ही उन्हे धर्म अच्छा नही मालूम होता । ससार के अधिकतर जीव इसी श्रेणी के होते हैं ।
(२) सासादन - सम्यग्दृष्टि २ - जो जीव मिथ्यात्व कर्म के उदय को हटा कर सम्यग्दृष्टि हो जाता है; वह जब सम्यक्त्व से च्युत हो कर मिथ्यात्व मे आता है तो दोनो के बीच का यह दर्जा होता है । जैसे पहाड़ की चोटी से यदि कोई आदमी लुढके तो जब तक वह जमीन मे नही आ जाता तब तक उसे न पहाड़ की चोटी पर ही कहा जा सकता और न जमीन पर ही, इसी प्रकार इसे भी जानना चाहिए । सम्यक्त्व चोटी के समान है, मिथ्यात्व जमीन के समान है और यह गुणस्थान बीच के ढालू मार्ग के समान है, । अत जब कोई जीव आगे कहे जाने वाले चौथे गुणस्थान से गिरता है तभी यह गुणस्थान होता है । इस गुणस्थान में आने के बाद जीव नियम से पहिले गुणस्थान मे पहुँच जाता है ।
(३) सम्यग् - मिथ्यादृष्टि -- जैसे दही और गुड़ को मिला देने पर दोनो का मिला हुआ स्वाद होता है, उसी प्रकार एक काल मे
१ स्थानाग, (सूत्रवृत्ति) १०५, पृ० ६२, अ ।
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तुलना, महात्मा बुद्ध के अष्टागिक मार्ग का पहिला मार्ग 'सम्यग्दृष्टि' है । वौद्ध दर्शन, पृ० २५ ।