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१४० ] 'जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास धीरे-धीरे सर्वथा दवा देते है, पर उसे निमूल नही कर पाते । अत: जैसे किसी वर्तन मे भरी हुई भाप अपने वेग से ढक्कन को नीचे गिरा देती है, वैसे ही उस गुणस्थान मे आने पर दवा हुआ मोह उपशमश्रेणि वाले आत्माओ को अपने वेग से नीचे की ओर गिरा देता है । इसमे कषाय को विलकुल दबा दिया जाता है । अतएव कपाय का उदय न होने से इसका नाम उपशान्तकषाय वीतराग है; किन्तु इसमे पूर्ण ज्ञान और दर्शन को रोकने वाले कर्म मौजूद रहते है, इसलिए इसे छमस्थ भी कहते है।
(१२) क्षीणमोह-क्षपकश्रेणी पर चढने वाले मुनि मोह को धीरे धीरे नष्ट करते हुए जव उसे सर्वथा निर्मूल कर डालते है तो उन्हे क्षीणमोह कहते है। इस प्रकार सातवे गुणस्थान से आगे बढने वाले ध्यानी साधु चाहे पहली श्रेणी पर चढे, चाहे दूसरी श्रेणी पर चढ़े वे सब आठवॉ, नववा और दशवाँ गुणस्थान प्राप्त करते ही है। दोनो; श्रेणी पर चढने वालो मे इतना ही अन्तर होता है कि प्रथम श्रेणि वालो से दूसरी श्रेणी वालो मे आत्मविशुद्धि और आत्मवल विशिष्ट प्रकार का होता है, जिसके कारण पहिली श्रेणी वाले मुनि तो दशवे से ग्यारहवे गुणस्थान मे पहुँच कर दवे हुए मोह के उद्भूत हो जाने से नीचे गिर जाते है और दूसरी श्रेणी वाले मोह को सर्वथा नष्ट करके दसवे से बारहवे गुणस्थान मे पहुँच जाते है । यह सव जीव के भावो का खेल है। उसी के कारण ग्यारहवे गुणस्थान मे पहुंचने वाले साधु का अवश्य पतन होता है और वारहवे गुणस्थान मे पहुँच जाने वाला कभी नहीं गिरता, बल्कि ऊपर को ही चढता है ।
(१३) सयोगकेवली-समस्त मोहनीय कर्म के नष्ट हो जाने पर तेरहवाँ गुणस्थान होता है। मोहनीय कर्म के चले जाने से शेष कर्मो की शक्ति क्षीण हो जाती है । अत.वारहवे के अन्त मे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चारो घातिया कर्मो का नाश करके क्षीणकपाय मुनि सयोगकेवली हो जाता है । ज्ञानावरण कर्म के नष्ट हो जाने से उसके केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। वह जान पदार्थो के जानने मे इन्द्रियप्रकाश और मन वगैरह की सहायता नही लेता, इसलिए उसे केवलजान कहते है और उसके होने के कारण इस गुणस्थान वाले केवली कहलाते है। ये केवली आत्मा के शत्रु, घातिकर्मों को जीत लेने के कारण