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________________ १२६ ] जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास है, तव उनकी माता को ज्ञात होता है कि कोई अतिशय पुण्यशाली व्यक्ति इस पृथ्वी पर जन्म लेने वाला है । तीर्थकर का जन्मोत्सव मनाने के लिए स्वर्ग से देवतागण आते है । वे अमृत, गन्ध, चूर्ण, पुष्प और रत्नो की वृष्टि करते है, और फिर तीर्थकर का अभिषेक कर उन्हे तिलक तथा रक्षावन्धन आदि करते है। तीर्थकर की दीक्षा का जव समय निकट आता है, तव पांचवे कल्प (स्वर्ग) ब्रह्मलोक मे रहने वाले लोकान्तिक देवता उनको आ कर समझाते है कि 'हे भगवन'। आप सकल जीवो के हितकारक, धर्मतीर्थ की स्थापना करे। इस सम्बोधन के साथ ही उन्हें अपने तीर्थकरत्व का वोच होता है और वे निकट भविष्य मे दीक्षा की तैयारी करने लगते है।। दीक्षा के समय भी देवी-देवता स्वर्ग से आते है और वे मनुष्यो के साथ मिल कर महोत्सव मनाते है। उस समय तीर्थंकर एक ही वस्त्र धारण कर पालकी मे बैठते है और सबके साथ वन की ओर चलते हैं। अंत मे दीक्षा धारण कर तपस्या में संलग्न हो कर वे केवलज्ञान प्राप्त कर अर्हत, जिन, केवली, सर्वज्ञ एवं समभावदर्शी हो जाते है। केवलज्ञानप्राप्ति के समय पुन देवी-देवता और मनुष्य उत्सव का आयोजन करते है। इसी समय भगवान की अद्वितीय प्रतिभा एवं जान को देख कर अनेक स्त्री-पुरुष उनके अनुयायी वन जाते है।४ __ तीर्थकर का वास्तविक तीर्थ-प्रवर्तन यही से प्रारम्भ होता है। वे देवी-देवता स्त्री-पुरुप सभी को सद्भाव से धर्म का उपदेश देते है। धर्म का उपदेश देते हुए अन्त मे अवशिष्ट कर्मों का नाश कर वे निर्वाणलाभ करते है। १ वही (१, ३, ३१, ४६) । २. जैनसूत्राज भाग १, (कल्पसूत्र १, ५, ९८), तथा आचाराग २, १५८ ३. वही १, ५, ११०, १११ । ४. वही " १, ५, ११२, ११३, १२० । ५. जैनसूत्राज् भाग १, कल्पसूत्र १, ५, १३४-१४२ । ६. वही , १५ १४७ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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