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चतुर्थ अध्याय : मानव-व्यक्तित्व का विकास
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१८ ज्ञान-शक्ति को निरन्तर बढ़ाते रहना। १६. आगम पर श्रद्धा रखना। २०. प्रवचन का प्रकाश करना।
तीर्थकर अपने समय का सबसे बड़ा धर्म प्रर्वतक होता है। जिनशासन और जिन-संघ का पूर्ण उत्तरदायित्व तीर्थंकर पर होता है। भगवतीसूत्र मे लिखा है कि श्रमण भगवान् महावीर तीर्थंकर थे, वे स्वयंबुद्ध थे, वे सम्पूर्ण पुरुषी मे श्रेष्ठ, सिंह की तरह निर्भय तथा शक्तिशाली और कमल की तरह सुन्दर एवं समस्त संसार के स्वामी थे। वे लोगो को प्रकाश देने वाले थे, चक्ष देने वाले थे तथा लोगो के सन्मार्ग के प्रदर्शक थे। वे संसार से भयभीत प्राणियो को शरण देने वाले थे। वे छद्म अर्यात् छल, प्रमाद एवं धातीकर्मावरणो से दूर थे। वे जिन, तीर्ण, तारक, वुद्ध, वोधक, मुक्त, मोचक, सर्वज और सर्वदर्शी थे तथा शिव, अचल, अरुज, अनन्त अक्षय, अव्यावाध तया अपुनरावर्तक सिद्ध गति को प्राप्त करने का लक्ष्य रखते थे।
उपयुक्त सभी विशेषण इस बात का द्योतन करते है कि तीर्थ कर स्वयबुद्ध हो कर प्राणिमात्र को वास्तविक धर्म का रहस्य बता कर समस्त संसार के कल्याण मे तत्पर रहते है।
तीर्थंकर भी अर्हत-अवस्था को प्राप्त करता है। अर्थात वह आत्मगुणविनाशक चार कर्मों का नाश कर पूर्ण ज्ञान, दर्शन, सूख और शक्ति को प्राप्त कर लेता है । अर्हत-अवस्था को प्राप्त कर लेने के बाद ही तीर्थकर धर्म का उपदेश देते है। इसके पूर्व नही। भगवान् महावीर ने १२॥ वर्ष की तपस्या के बाद जब अर्हत-अवस्था को प्राप्त किया; तब ही उन्होने उपदेश देना प्रारम्भ किया ।२
पूर्वजन्म मे शुभ कार्यों द्वारा अनन्त पुण्यबन्ध करने वाला जीव अगले भव मे तीर्थकर अवस्था को प्राप्त करता है। अत वह जन्म से ही तीर्थंकर होता है। तीर्थकर की माता पुत्र के गर्भ में आते ही १४ शुभ स्वप्न देखती है। तीर्थकर के पिता जब उन स्वप्नो का रहस्य समझाते
१. भगवती सूत्र, १ ५ तथा नायाधम्मकहाओ १ । २. जैनसूत्राज् भाग १ (कल्पसूत्र १, ५, १२१,-१२२) ।
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