________________
१२४ ]
जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
इस धर्मतीर्थ की स्थापना करने के कारण भगवान महावीर आदि तीर्थ कर कहलाते है । स्थानागसूत्र मे लिखा है कि अर्हतों के निर्वाण से लोक मे अंधकार हो जाता है तथा अर्हतो के उत्पन्न होने से लोक मे उद्योत हो जाता है।'
तीर्य कर 'नामकर्म' की एक प्रकृति (भेद) मानी गई है, जिसका वंध किन्ही विशिष्ट शुभ कार्यों के करने से होता है । इसका यह अर्थ हुआ कि यदि कोई व्यक्ति जीवनभर शुद्ध भावना से उन शुभ कार्यो को करता रहे तो वह अग्निम जन्म मे तीर्थ करपद को धारण कर सकता है। नायाधम्मकहाओ मे वर्णन है कि महावल मुनि अनेक प्रकार की तपस्याओ को करके सर्वोत्कृष्ट पुण्य के परिणामस्वरूप तीर्थकर नामकर्म का बंध करते है, जिसका कि बंध निम्नलिखित बीस कारणो से होता है।
१-७. अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, वहुश्रुत एवं तपस्वी इन सात व्यक्तियो मे के प्रतिवात्सल्य भक्ति प्रशित करना।
८ अनवरत ज्ञानाभ्यास करना ।
६. जीवादि पदार्थो के यथार्थ श्रद्धारूप शुद्ध सम्यक्त्व का पालन करना।
१०. गुरुजनो का विनय करना ।
११ प्रायश्चित्त एवं प्रतिक्रमण द्वारा अपने अपराधो की क्षमायाचना करना।
१६ अहिंसादि व्रतो का अतिचाररहित योग्य रीति से पालन करना। १३. पापो की उपेक्षा करते हुए वैराग्यभाव धारण करना । १४ वाह्य और आभ्यन्तर तप करना । १५ यथाशक्ति त्यागवृत्ति को अपनाना । १६ साधुजनों की सेवा करना । १७. समताभाव रखना ।
१. स्थानाग, १३४ । २. समवायाग, ४२। ३. नायाधम्मकहाओ ८, ६६, पृ० ६१ ।