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चतुर्थ अध्याय : मानव-व्यक्तित्व का विकास
[ १२३ ही प्राप्त हो जाती है। अत. शरीर रहने के कारण कुछ कर्मों का संवन्ध उसके साथ रहता है, यद्यपि वे कर्म उसकी आत्मा के पूर्ण विकास मे थोड़ी-सी भी वाधा नही डालते ।' कर्मवन्धन के सद्भाव के कारण ही वह पूर्णमुक्त अर्थात सिद्ध नही कहलाता । फिर भी वह आत्म-विकास मे वाधक कर्मो के नष्ट हो जाने से आत्मा के पूर्ण विकसित गुणो को प्राप्त कर लेता है। ज्ञान के वाधक कर्म नष्ट होने से उसे पूर्ण ज्ञान अर्थात् केवल-जान की प्राप्ति हो जाती है और वह समस्त संसार के अणुपरमाणु की प्रति समय की प्रत्येक अवस्था को जानने लगता है। इसी प्रकार दर्शन के वाधक कर्म के नष्ट हो जाने से वह संसार की क्षण-प्रतिक्षण की अवस्था का दर्शन करने लगता है। मोहनीय और अंतराय के नष्ट होने से अनन्तसुख और उसे अनन्तशक्ति की प्राप्ति हो जाती है, इस प्रकार अर्हत-अवस्था को प्राप्त प्राणी सासारिक परमात्मपद को प्राप्त कर लेता है। ये प्रथम समय 'जिन' सयोगकेवली, संदेहमुक्त तथा जीवन्मुक्त आदि नामों से कहे जाते है । तीर्थ कर
अरिहंत की भूमिका मे तीर्थ कर-अरिहंत भी आ जाते है और दूसरे समस्त अरिहंत भी। तीर्थ कर और दूसरे केवली-अरिहंतो मे आत्म-विकास की दृष्टि से कुछ भी अंतर नहीं है । सव अरिहंत अन्तरंग में एक भूमिका पर होते है। सवका ज्ञान, दर्शन, चरित्र और वीर्य समान ही होता है । सबके सव अरिहंत 'क्षीणमोह' की भूमिका पार करने के वाद तेरहवे गुणस्थान मे होते हैं ।
तीर्थकर का अर्थ है तीर्थ का निर्माता । जिसके द्वारा संसाररूप मोह-माया का नद मुविधा से तिरा जाए; वह धर्मतीर्थ कहलाता है। १. अर्हत् के चार कर्म मौजूद रहते है-"वेदनीय, आयु, नाम, और गोत्र"
__स्थानाग, २६८, २ महन्त के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये ४
घातीकर्म नष्ट हो जाते हैं।
जनमूत्राज्, भाग १, (कल्पसूत्र, ५, १२७ पृ० २६६) ४. तुलना, "जीवन्मुक्तो नाम • 'अखिलगन्वरहितो ब्रह्मनिष्ठ."
___वेदान्तसार, पृ० १४ ५. "तीर्थ प्रवचने शास्त्र लब्धाम्नाये दिगम्बरे,
पुण्यारण्ये जलोत्तारे महासत्त्वे महामुनी" अमरकोप ।