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________________ चतुर्थ अध्याय • मानव-व्यक्तित्व का विकास [ १२७ समवायाग मे ३४ बुद्धातिशयो का वर्णन है ।" टीकाकार अभयदेव सूरि ने बुद्ध का अर्थ तीर्थकर किया है । २ इन अतिशयो के अनुसार तीर्थंकरो की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती है १ तीर्थंकरो के सिर के बाल, दाढी तथा मूंछ, एवं रोम और नख aढते नही है, हमेशा एक ही स्थिति में रहते है । २ उनका शरीर हमेशा रोग तथा मल से रहित होता है । ३. उनका मांस तथा खून गाय के दूध के समान सफेद वर्ण का होता है । ४ उनका श्वासोच्छ् वास कमल के समान सुगन्धित होता है । ५ उनका आहार तथा नीहार (मूत्रपुरीषोत्सर्ग) दृष्टिगोचर नही होता । ६. वे धर्म चक्र का प्रवर्तन करते है । ७ उनके ऊपर तीन छत्र लटकते रहते है । ८ उनके दोनो ओर चामर लटकते है । ६ स्फटिकमणि के बने हुए पाद- पीठ सहित उनका स्वच्छ सिंहासन होता है । १० उनके आगे हमेशा अनेक लघुपताकाओ से वेष्टित एक इन्द्रध्वज पताका चलती है । ११. जहाँ-जहाँ अरिहत भगवान् ठहरते है, अथवा बैठते है, वहाँवहाँ यक्ष-देव सछत्र, सध्वज, सघट, सपताक तथा पत्र-पुष्पों से व्याप्त अशोकवृक्ष का निर्माण करते हैं । १२ उनके मस्तक के पीछे दशो दिशाओ को प्रकाशित करने वाला तेजोमंडल होता है। जहाँ भगवान् का गमन होता है; वहाँ निम्नलिखित परिवर्तन हो जाते है १३ भूमिभाग समान तथा सुन्दर हो जाता है । १. समवायाग, ३४ । २. वही, टी० (अभयदेव) पृ० ३५ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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