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चतुर्थ अध्याय मानव-व्यक्तित्व का विकास
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जैनसूत्रों मे मनुष्य जीवन के माहात्म्य का वहुत वर्णन मिलता है । " सूत्रकृताग मे लिखा है कि इस मनुष्यलोक में धर्म का सेवन करके जीव ससार-सागर से पार हो जाते है । मनुष्य को छोड कर अन्य गति वाले जीव सिद्धि को प्राप्त नही होते, क्योकि उनमे ऐसी योग्यता नही है । अ यह मनुष्यभव प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है ।" जो इस मनुष्य-शरीर से भ्रष्ट हो जाता है, उसे वोधि प्राप्त करना दुर्लभ है ।" यह मनुष्यभव अत्यन्त दुष्प्राप्य है तथा जीवो को बड़े लम्बे काल के बाद कभी मिलता है, क्योकि कर्मों के फल गाढ (घोर) होते है । अनेक विघ्नो से परिपूर्ण और क्षण-क्षण घटती हुई आयु वाले इस जीवन मे पूर्व सचित कर्मो को शीघ्र दूर कर देना चाहिए । ७ कुश के अग्र भाग पर स्थित ओस की बूँद की तरह यह मनुष्यजीवन क्षणभंगुर है | "
विकास की परिभाषा
मनुष्य ही क्या, ससार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है तथा दुःख से भागता है ।" वास्तव मे प्राणी का अनन्त एव अविनाशी सुख का प्राप्त कर लेना ही उसके जीवन का सर्वोच्च विकास है ।
जैनागम मे सुख के दो भेद किए है- (१) आतरिक तथा (२) वाह्य | प्रथम आत्मनिष्ठ है तो द्वितीय वस्तुनिष्ठ प्रथम आध्यात्मिक है तो द्वितीय भौतिक, प्रथम अजर-अमर है, तो द्वितीय क्षणिक । एक दुख की कालिमा से सर्वथा रहित है, तो दूसरा सुख को तरह प्रतीत होने वाला किन्तु, दुखो से परिपूर्ण ।
१. तुलना, “गुह्य ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि न हि मानुपात श्रेष्ठतरं हि किंचित्"
- महाभारत ।
२.
३
४
५
६.
सूत्र कृ०, १, १५, १५
वही, १, १५, १६ ।
वही, १, १५, १७ ।
वही, १, १५, १८
उत्तरा०, १०, ४ ।
७
वही, १०, ३ ।
८. वही, १०, २ ।
E.
आचाराग १, २, ८० ।