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जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
वाह्य सुख मे इस प्रकार के भौतिक तथा पौद्गलिक सुखो का समावेश हो जाता है । यह सुख वस्तुनिष्ठ है अत वस्तु है तो सुख है, अन्यथा दु ख । सच्चा सुख आत्मा से ही पैदा होता है, अत: वह हमेशा स्थिर रहता है । जव आत्मा बाहर भटकता है तो दुःख का शिकार वनता है । और जव लौट कर अपने अन्दर मे ही आता है तो वैराग्यरस का आस्वाद करता है और सुख-शान्ति उसे अपने मे ही मिल जाती है।'' प्रवुद्ध-ज्ञानेन्द्रिय मनुष्य को जव उपयुक्त रूप से सच्चे आत्म-सुख का बोध हो जाता है तो उसके सभी व्यापार आत्मोन्मुख हो जाते है । ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियॉ, वुद्धि, मन, शरीर आदि के कार्यो की दिशा बदल जाती है। उसमे प्राणिमात्र के प्रति समानता की भावना पैदा होने लगती है।' वह आत्मसुख की झलक पा जाता है और उसे मालूम हो जाता है कि मानवजीवन का ध्येय न धन है, न रूप है, न वल है और न सासारिक सुख ही है; किन्तु मनुष्य जीवन मे मनुष्यता का पूर्ण विकास कर अनन्त सुख प्राप्त करना ही उसका अन्तिम लक्ष्य है।
यो ही कही से घूमता, फिरता, भटकता आत्मा शुभकर्मों के प्रभाव मे मानव-शरीर मे आया, कुछ दिन रहा, खाया-पिया, लडा-झगडा, रोया और एक दिन मर कर काल-प्रवाह मे आगे के लिए बढ गया, भला यह भी कोई जीवन है ? जीवन का उद्देश्य मरण नही, मरण पर विजय प्राप्त करना है । इस विराट ससार मे कोई जाति, कुल, वर्ण और स्थान ऐसा नही है जहाँ इस जीव ने अनन्त बार जन्म-मरण न किया हो । भगवतीसूत्र मे हमारे जन्म-मरण की दुःखभरी कहानी का स्पष्टीकरण करने वाली एक महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तरी है। गौतम पूछते है कि-"भन्ते, असंख्यात कोड़ा-कोडी योजन परिणाम
१ "मनुष्यो को बडी-बडी कामनाएँ होती है जिनके कारण वे सच्चे सुख से दूर रहते हैं।"
-आचाराग, १, ५, १४१ । "प्रत्येक श्रमण-ब्राह्मण को बुला कर पूछो कि भाई, तुम्हे सुख दुखरूप है या दुख दुःख-रूप ? यदि वे सत्य बोलेगे तो यही कहेगे कि हम को दुख ही दुखरूप है। फिर उनसे कहना चाहिए कि तुमको जैसे दुख दुःख-रूप है, वैसे ही सब जीवो को भी दु.ख महाभय का कारण और अगाति-कारक है।"
-वही, १, ४, १३३, १३४ । भगवती सूत्र, १२, ७, ४५७ ।