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________________ ११२ ] जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास विश्व मे मनुप्य ही सवसे थोडी संख्या मे है, अतः मनुप्य-जीवन को पा लेना ही दुर्लभ है । "संसारी जीवो को मनुष्य का जन्म चिरकाल तक इधर-उधर अन्य योनियों मे भटकने के बाद बडी कठिनाई से प्राप्त होता है । वह सहज नहीं है, दुष्कर्म का फल बड़ा ही भंयकर होता है। अतएव हे गौतम क्षणभर के लिए भी प्रमाद मत कर।' जो प्राणी छल-कपट से दूर रहता है, प्रकृति से ही सरल होता है, अहकार में शून्य होकर विनयशील होता है, सब छोटे-बड़ो का यथोचित सम्मान करता है, दूसरो की किसी भी प्रकार की उन्नति को देख कर डाह नहीं करता, प्रत्युत जिसके हृदय मे हर्ष और आनन्द की स्वाभाविक अनुभूति होती है, रग-रग मे ठया का संचार है, जो किसी भी प्राणी को देखकर द्रवित हो जाता है एवं उसकी सहायता के लिए तन-मनधन सब लुटाने को तैयार हो जाता है, वह मृत्यु के पश्चात् मनुष्य-जन्म पाने का अधिकारी होता है ।। मानव-जीवन की महत्ता ___ जन-संस्कृति मे मानव-जन्म को बहुत ही दुर्लभ एवं महान माना गया है । जैन-धर्म के अनुसार देव होना उतना दुर्लभ नही, जितना कि मनुष्य होना दुर्लभ है। जैनागम मे जहाँ कही भी आप किसी को संवोधित होते हुए देखेगे वहाँ 'देवानुप्रिय' शब्द का प्रयोग पायेगे ।३ भगवान् महावीर भी मनुष्य को देवानुप्रिय शब्द से संबोधित करते थे। देवानुप्रिय शब्द का अर्थ है, देवताओ को भी प्रिय । दुर्भाग्य से मानवजाति ने इस ओर ध्यान नहीं दिया और वह अपनी श्रेष्ठता को भूल कर अवमानता के दल-दल मे फंसी हुई है। मनुष्य तू देवता से भी ऊँचा है, देवता भी तुझ से प्रेम करते है, वे भी मनुष्य बनने के लिए व्याकुल है। कितनी विराट प्रेरणा है—मनुष्य की सुप्त आत्मा को जगाने के लिए। मनुष्य-जीवन की इस महत्ता का मूल कारण यह है कि वह अपनी बुद्धि का व्यवस्थित उपयोग कर सत्कार्यों द्वारा उस अविनाश सुख को प्राप्त कर सकता है, जिसकी प्राप्ति के लिए देवता लोग भी व्याकुल रहते है। १. उत्तराध्ययन, १०,४ २. औपपातिकसूत्र ३. विवागसूयम्, १, १, पृ० ६.
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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