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चतुर्थ अध्याय : मानव-व्यक्तित्व का विकास
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जितना लम्बा मार्ग तय करे, वह एक राजु की विशालता का परिमाण है । '
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सूक्ष्म पाँच स्थावरो से यह असंख्यात योजनात्मक विराट् संसार ठसाठस भरा हुआ है। कही अणुमात्र भी ऐसा स्थान नही है, जहाँ कोई सूक्ष्म जीव न हो । सम्पूर्ण लोकाकाश सूक्ष्म जीवो से परिव्याप्त है । विश्व में मानव का स्थान
अनन्तानन्त विश्व में मनुष्य एक नन्हे से क्षेत्र मे अवरुद्ध-सा खडा है । जहाँ अन्य जाति के जीव असंख्य तथा अनन्त संख्या मे है, वहाँ यह मनुष्य जाति, अल्प एवं सीमित है । विश्व की अनन्तानन्त जीवराशि के सामने मनुष्य की गणना मे आ जाने वाली अल्प सख्या उसी प्रकार है, जिस प्रकार महासमुद्र के समक्ष एक नन्ही-सी बूँद । चौदह राजु लोक मे मनुष्य को केवल सबसे क्षुद्र एवं सीमित ढाई द्वीप ही रहने को मिला है।
मानव जीवन की प्राप्ति
संसार में अनन्तकाल से परिभ्रमण करती हुई आत्मा जब क्रमिक विकास का मार्ग अपनाती है, तब वह अनन्त पुण्यकर्म के उदय से निगोद ( प्राणी की सबसे अल्पविकसित अवस्था) से निकल कर प्रत्येकवनस्पति, पृथ्वी, जल आदि योनियो मे जन्म लेती है । यहाँ भी जब अनन्त शुभकर्म का उदय होता है, तव हीन्द्रिय केचुआ आदि के रूप मे जन्म होता है । इसी प्रकार तीन इन्द्रिय चीटी आदि, चतुरिन्द्रिय मक्खी, मच्छर आदि, पंचेन्द्रिय नारक, तिर्यच आदि की विभिन्न योनियो कोपार करता हुआ क्रमण ऊपर उठकर जीव अनन्त पुण्यबल के प्रभाव से मनुष्य जन्म ग्रहण करता है । भगवान् महावीर कहते है कि जब अशुभ कर्मो का भार दूर होता है, आत्मा शुद्ध, पवित्र और निर्मल बनती है, तव कही यह जीव मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ गति को प्राप्त करता है | t
१.
श्रमण सूत्र, पृ० ३.
उत्तराध्ययन, ३६, 'सुहमा सव्वलोगम्मि'
३ वही, १०, ५, २० वही, ३, ७,