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जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास व्रत कहलाते है। किन्तु जव इनका त्याग साधारणरूप से होता है नव ये निर्जरा-स्थान कहे जाते है ।' ___. मोक्ष-आत्मा के साथ वधे हुए ज्ञानावरणादि कर्मों का सपूर्ण रूप से अभाव हो जाना मोक्ष है । समवायाग मे मुक्त आत्मा (सिद्ध) के ३१ गुण कहे गए है। ज्ञानावरणादि पाँच कर्मो के अभाव से पाँच गुण, दर्शनावणादि : कर्मों के अभाव से गुण, सातावेदनीय तथा असातावेदनीय के अभाव से दो गुण, दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय के अभाव से दो गुण, नरक, तिर्यच, मनुष्य तथा देव-आयु के अभाव से चार गुण, शुभनाम तथा अशुभनाम कर्म के अभाव से दो गुण, उच्चगोत्र तथा नीचगोत्र के अभाव से दो गुण तथा दानान्तराय आदि पाँच अन्तरायो के अभाव से पाँच गुण, इस प्रकार आठो कर्मों के अभाव हो जाने से मुक्त जीवो के ३१ गुण प्रकट हो जाते है।
८-६ पुण्य तथा पाप-अहिसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रहरूप शुभकर्म पुण्य है तथा हिसा, झूठ, चोरी, मैथुन तथा परिग्रहरूप अशुभकर्म पाप है। वास्तव मे यदि शुभ एव अशुभ कर्मो की गणना की जावे तो पुण्य तथा पाप के अनेक भेद हो जाएंगे किन्तु अहिसादि समस्त शुभकर्मों का प्रतिनिधित्व करते है। इसी तरह हिसादि समस्त पाप कर्मों का प्रतिनिधित्व करते है। 3 (ब) लोक का स्वरूप
यह समस्त ससार तीन भागो मे विभक्त है।४ ऊर्ध्वलोक, तिर्यग्लोक तथा अधोलोक । अधोलोक मेरुपर्वत के समतल के नीचे नौ सौ योजन की गहराई के वाद गिना जाता है । समतल के नीचे तथा ऊपर के नौ सौ, नौ सौ योजन अर्थात् कुल अठारह सौ योजन का तिर्यग्लोक है । तिर्यग्लोक के ऊपर सपूर्ण प्रदेश ऊर्ध्वलोक है ।" १ समवायाग, ५ (अभयदेवसूत्रवृत्ति, पृ० १०) २ वही, ३१
ममवायाग, १ तथा स्थानाग, ५९ । तुलना, "पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा
भवति पाप पापेनेति ।" वृहदारण्यकोपनिपद्, ५६० ४ स्थानाग, १५३
वही, १५३ (अभयदेवसूत्रवृत्ति, पृ० १२१ व )
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