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तृतीय अव्याय : जैन-तत्त्वज्ञान
[ १०३ यह लोक नीचे की ओर विस्तृत, मध्य मे सक्षिप्त और ऊपर के भाग मे विगाल है। आकार में वह अधोभाग में पलग जैसा, मध्य भाग मे बज्र जैसा और ऊपर भाग मे मृदग जैमा है। यह लोक गाश्वत, परीत्त (असख्येयप्रदेगात्मक) तथा परिवृत (अलोकाकाग से व्याप्त) है।
भगवती सूत्र मे लोकस्थिति का स्वरूप वहुत स्पष्टरूप से समझाया गया है, '-"बस स्थावरादि प्राणियो का आधार पृथिवी है, पृथिवी का आधार उदधि है, उदधि का आधार वायु है और वायु का आधार आकाग है। जैसे कोई पुरुप मनक को हवा से पूर्ण भर कर उसका मुह वद करदे, फिर उसको वीच में से मजबूत वाध कर मह पर की गाठ खोल हवा निकाल कर उसमे पानी भर दे और फिर मह पर कसकर गाँठ वाँध दे, फिर वाद मे वीच की गाँठ खोल दे तो वह पानी नीचे की हवा पर ठहरेगा। इसी तरह आकाश के ऊपर हवा और हवा के ऊपर पृथिवी आदि रहते है।"
अवलोक-मध्यलोक के ऊपर कुछ कम ७ रज्जुप्रमाण विस्तार वाला ऊर्बलोक है। यह देवताओ का निवास स्थान है। देवता ४ प्रकार के कहे गए है-१. भवनवासी, २ व्यन्तर, ३ ज्योतिष्क, ४ वैमानिक।
भवनवासी देव भवनो मे निवास करते है। इनके भवन नगरसहन होते है । वे वाहर से गोल और भीतर से समचतुष्कोण और नीचे पुष्पकर्णिका जैसे होते है ।
भवनवासियो के १० भेद है--१ असुरकुमार, २ नागकुमार, ३ विद्युत्कुमार, ४ मुपर्णकुमार, ५ अग्निकुमार, ६ वातकुमार, ७ स्तनितकुमार, ८ उदधिकुमार, ६ द्वीपकुमार, १० दिक्कुमार।
सभी भवनवासी देव कुमार कहलाते है, क्योकि वे कुमार की तरह देखने में मनोहर तथा सुकुमार होते है और मृदु एव मधुरगतिवाले तथा क्रीडागील होते है । १ भगवती, ५ ९ २ वही, १६ ३ स्थानांग, १५३ (अभयदेवसूत्रवृत्ति, पृ० १२१ ब) ४ वही, २५८ ५ बही, ७३६