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तृतीय अध्याय : जैन-तत्त्वज्ञान
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जिससे ऊँचपन या नीचपन मिले वह गोत्रकर्म है । गोत्र के दो भेद हैं- उच्चगोत्र तथा नीचगोत्र । प्रतिष्ठा प्राप्त कुल में जन्म दिलाने वाला कर्म उच्चगोत्र है । शक्ति रहने पर भी प्रतिष्ठा न मिल सके ऐसे कुल में जन्म दिलाने वाला कर्म नीचगोत्र है । '
जिस कर्म के उदय से लेने तथा देने आदि मे विघ्न हो वह अन्तरायकर्म है । अन्तराय के दो भेद है - प्रत्युत्पन्नविनागि तथा पिधत्तागामिपथ । जिस कर्म के उदय से वर्तमान में, वस्तु के लाभादि मे विघ्न पडे वह प्रत्युत्पन्नविनाश अन्तराय है । जिस कर्म के उदय मे भविष्य में प्राप्त करने योग्य वस्तु के लाभादि मे विघ्न पडे वह पिधतागामिपथ अन्तराय है ।"
५. संवर - जीवरूपी तालाव मे कर्मरूपी जल का आना आस्रव कहलाता है, ठीक इसके विपरीत कर्मरूपी जल के आने को रोक देना सवर है । आस्रव सवर का विरोधी है, इस कारण जो मिथ्यादर्शनादि आस्रव के द्वार कहे गए है उनके विरोधी सम्यग्दर्शनादि सवर के द्वार है । सवर के पाँच द्वार है- १ सम्यक्त्व, २ विरति ३ अप्रमाद, ४ अकपाय, ५ अयोग | ये पॉचो क्रमश आस्रव के प्रकरण मे कहे गए मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कपाय, तथा योग के अभाव से होते है । 3 प्रश्नव्याकरणाग मे अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्यं तथा अपरिग्रह सवर के द्वार कहे गए हे |
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६. निर्जरा - आत्मा के साथ वधे हुए जानावरणादि कर्मो का एकदेश से नष्ट होना निर्जरा है। समवायाग में निर्जरा स्थान (निर्जरा के कारण ) पाँच वताए गए है -१ प्राणातिपात ( हिसा ) से विरमण, २ मृषावाद (असत्य) से विरमण, ३ अदत्तादान (चोरी) से विरमण, ४ मैथुन ( अब्रह्मचर्य) से विरमण, ५ परिग्रह से विरमण । प्राणातिपान आदि का जब सपूर्णरूप से त्याग होता है तब ये महाव्रत कहलाते है । जब इनका स्थूलरूप से त्याग होता है तब ये अणु
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स्थानाग १०५, (अभयदेव वृत्ति, पृ० ९२, नोट न० १)
वही, १०५
वही, ४१८ ( अभयदेवसूत्रवृत्ति, पृ० ३०० )
प्रयाणIT, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, ( सवरद्वार ) ।