________________
१०० [
जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-यक्तित्व का विकास मे प्राणी को मुख का अनुभव हो, वह मातावेदनीय है । जिस कर्म के उदय से प्राणी को दुख का अनुभव हो वह अमातावेदनीय है।
जिस कर्म के उदय से आत्मा मोह (मूढता राग-द्वेप) को प्राप्त हो वह मोहनीय कर्म है। मोहनीय के दो भेद है-दर्गनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय । जिस कर्म के उदय से पदार्थों का यथार्थ श्रद्धानरूप दर्जन न हो वह दर्गनमोहनीय है। जिस कर्म के उदय से सामायिकादि चारित्र मे रुचि उत्पन्न न हो वह चारित्रमोहनीय है।'
जिस कर्म के उदय से भव-धारण हो, वह आयु है । आयु के चार भेद है-१ नरकायु, २ तिर्यचायु, ३ मनुष्यायु, ४ देवायु । जिस कर्म के उदय से प्राणी को नरक, तिर्यच, मनुष्य तथा देवगति का जीवन व्यतीत करना पडे, वह क्रमा नरकायु, तिर्यचायु, मनुष्यायु तथा देवायु है ।
जिसमे विशिष्ट गति जाति आदि की प्राप्ति हो वह नाम है। नामकर्म के दो भेद है—१ शुभनामकर्म, २ अगुभनामकर्म । जिस प्रकार निपुण चित्रकार सुन्दर तथा असुन्दर एव प्रिय तथा अप्रिय रूपो का निर्माण करता है, इसी प्रकार नामकर्म भी जीव के गोभन तथा अशोभन एव इष्ट तथा अनिष्टरूप अनेक आकृतियो का निर्माण करता है। जिस कर्म के उदय से प्राणी का सुन्दर तथा इप्ट रूप उत्पन्न हो वह शुभ नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से अशुभ एव अप्रिय रूप उत्पन्न हो, वह अशुभ नामकर्म है।
"दर्शन के चार भेद हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्गन, अवधिदर्शन तथा केवलदर्शन । चक्षु इन्द्रिय मे होने वाला मामान्यावलोकन चक्षुदर्शन है। चक्षु को छोड अन्य इन्द्रियो से होने वाला मामान्यावलोकन अत्रक्षुदर्शन है । इमी पकार अवधिज्ञान तथा केवलज्ञान मे पूर्व होने वाला मामान्यावलोकन क्रमण अवधिदर्शन तथा वनदगंन है।"
----स्यानाग, ३६५ १ स्थानाग, १०५ २ वही, १०५ ३ वही, २९४ ५ स्थानाग, १०५ (अभयदेवमूत्रवृत्ति, पृ० ९२, नोट न० १