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तृतीय अध्याय : जैन-तत्त्वज्ञान
कर्म की प्रकृतियाँ आठ है - १ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, : ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७ गोत्र, तथा
८ अन्तराय |
जो कर्म आत्मा के ज्ञानगुण का आवरण करता है वह ज्ञानावरणकर्म कहलाता है । इसके पाँच भेद है - १ आभिनिवोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, ३ अवधिज्ञानावरण ४ मन पर्यय - ज्ञानावरण, ५ केवलज्ञानावरण | ये पाचो ज्ञानावरण क्रमग आभिनिवोधिक, श्रुत, अवधि, मन पर्यय तथा केवलज्ञान का आवरण " ( आच्छादन) करते है ।
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जिसके द्वारा दर्शन (सामान्यवोध ) का आवरण हो, वह दर्शना - वरण है | दर्शनावरण कर्म के नव भेद है- १ निद्रा, २ प्रचला, ३ निद्रानिद्रा, ४ प्रचलाप्रचला, ५ स्त्यानगृद्धि, ६ चक्षुदर्शनावरण, ७ अचक्षुदर्शनावरण, ८ अवधिदर्शनावरण, तथा = केवलदर्शनावरण।
जिस कर्म के उदय से सुखपूर्वक जाग सके ऐसी निद्रा आवे, वह निद्रा है । जिस कर्म के उदय से बैठे-बैठे या खडे - खडे ही निद्रा आ जावे, वह प्रचला है । जिस कर्म के उदय से निद्रा से जागना अत्यन्त दुष्कर हो, वह निद्रानिद्रा है । जिस कर्म के उदय से चलते-चलते ही नीद आ जाए वह प्रचलाप्रचला है। जिस कर्म के उदय से जागृत अवस्था मे सोचे हुए काम को निद्रावस्था मे करने की सामर्थ्य प्रकट हो जाए, वह स्त्यानगृद्धि है। जो कर्म चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, तथा केवलदर्शन का आवरण करे, वे कर्म क्रमश चक्षदर्शनावरण, अक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण तथा केवलदर्शनावरण कहलाते है ।
जिससे सुख या दुख का अनुभव हो वह वेदनीय कर्म है | वेदनीय के दो भेद है-सातावेदनीय तथा असातावेदनीय । जिस कर्म के उदय
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स्थानाग ५९६, (अभयदेवसूत्रवृत्ति, पृ० ३९४, ३९५)
वही, ४६४
स्थानाग, ६६८, ममवायाग ९
"आत्मगुण चैतन्य, अवस्था विशेष मे निराकार रह कर दर्शन, और दर्शन की व्याख्या पदार्थों
पृ० २६५
साकार होकर ज्ञान कहलाता है । के सामान्यावलोकन तक जा पहुँची ।" जैनदर्शन,
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