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तृतीय अध्याय जैन-तत्त्वज्ञान
तत्त्वज्ञान
विश्व के वाह्य और आंतरिक स्वरूप के सबंध मे तथा उसके सामान्य एव व्यापक नियमो के संबंध में जो तात्त्विक दृष्टि से विचार किए जाते है, उनका नाम तत्त्वज्ञान है । इस प्रकार से विचार करना मनुष्यत्व का विशिष्ट स्वरूप है, अतएव प्रत्येक देश में निवास करने वाली प्रत्येक प्रकार की मानव - प्रजा में ये विचार अल्प या अधिक अग में उद्भूत होते है ।
मनुष्य जाति जव प्रकृति की गोद मे आई और उसने सबसे पहिले वाह्य विश्व की ओर आँखे खोली तब उसके समक्ष अद्भुत और चमत्कारी वस्तुएँ तथा घटनाएँ उपस्थित हुई । एक ओर सूर्य, चन्द्र और अगणित तारामंडल तथा दूसरी ओर समुद्र, पर्वत, विशाल नदीप्रवाह, मेघगर्जनाएँ और विद्युतचमत्कारो ने उसका ध्यान आकर्षित किया । मनुष्य का मानस इन सव स्थूल पदार्थो के सूक्ष्म चिन्तन मे प्रवृत्त हुआ और उसके हृदय में इस सबंध मे अनेक प्रश्न उद्भूत हुए । जिस प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क में वाह्य विश्व के गूढ तथा अति सूक्ष्म स्वरूप के विषय मे और उनके सामान्य नियमो के विषय में विविध प्रश्न उत्पन्न हुए, उसी प्रकार आतरिक विश्व के गूढ और अति सूक्ष्म स्वरूप के विषय मे भी उसके मन मे विविध प्रश्न उठे । इन प्रश्नो की उत्पत्ति ही तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति का प्रथम सोपान है ।
पूर्वी तथा पश्चिमी तत्त्वज्ञान की प्रकृति की तुलना
पूर्वी हो या पश्चिमी, सभी तत्त्वज्ञान केवल जगत्, जीव और ईश्वर के स्वरूप चिन्तन में ही पूर्ण नही होते, परन्तु वे अपने प्रदेश
१. अनेक मनुष्यो को यह ज्ञान नही है कि वे कहाँ से आये है और कहाँ जाने वाले हैं ? उनकी आत्मा जन्मजन्मान्तर को प्राप्त करती है या नही ? - आचाराग १११-३