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जैन-सगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास मे चारित्र का प्रश्न भी हाथ मे लेते है। अल्प या अधिक अग मे प्रत्येक तत्त्वज्ञान अपने मे जीवन-गोधन की विविध मीमासा का समावेग करता है, फिर भी पूर्वी तथा पश्चिमी तत्त्वज्ञान के विकास में हम थोडी भिन्नता भी देखते है ।
ग्रीक तत्त्व-चिन्तन का प्रारभ केवल विश्व के स्वरूप सवधी प्रश्नो से होता है और आगे जाकर क्रिश्चियेनिटी के साथ इसका सवध होने पर इसमे जीवन-गोधन का भी प्रश्न समाविष्ट होता है । परन्तु आर्य-तत्त्वज्ञान के इतिहास मे हम एक विशेपता देखते है, और वह यह कि मानो इस तत्त्वज्ञान का प्रारभ ही जीवन-गोधन के प्रश्न से हुआ हो, क्योकि आर्य-तत्त्वज्ञान की वैदिक, वौद्ध और जैन-इन तीन मुख्य शाखाओ मे समान रीति से विश्वचिन्तन के साथ ही जीवनगोधन का चिन्तन सकलित है। आर्यावर्त का कोई भी दर्गन ऐसा नही कि जो केवल विश्व-चिन्तन करके ही सतोष धारण करता हो। हम देखते है कि प्रत्येक मुख्य या शाखारूप आर्य दर्शन जगत्, जीव और ईश्वर सवधी अपने विशिष्ट विचार दिखला करके अत मे जीवन-शोधन के प्रश्न को भी लेता है और जीवन-गोधन की प्रक्रिया दिखला कर के विश्रान्ति लेता है। इसलिए हम प्रत्येक आर्य दर्गन के मूल ग्रन्थ मे प्रारभ मे मोक्ष का उद्देश्य और अत मे उसका ही उपसहार देखते है । जैन-तत्त्वज्ञान
(अ) पदार्थ-निरूपण-जैनागम मे सद्भाव-पदार्थ : माने गए है-१ जीव, २. अजीव. ३. आस्रव, ४ वध, ५ सवर, ६ निर्जरा, ७ मोक्ष, ८ पुण्य तथा ६ पाप 13 १ जैन-तत्त्वज्ञान, पृ० ६. २ वेदान्तसार, प्रारभ "अखड सच्चिदानदमवाड्मानसगोचरम्,
आत्मानमखिलाधारमाश्रयेऽभीष्टसिद्धये ।" समाप्ति "विमुक्तश्च विमुच्यते, इत्यादि श्रुते" साय्यकारिका-प्रारभ "दु खत्रयाभिधाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ",
समाप्ति “ऐकान्तिकमात्यन्तमुभय कैवल्यमाप्नोति' तर्कभापा-प्रारभ "तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसाधिगम" ३ स्थानांग, २, ७ १०, १३, १४, १६, ६६५ समवायाग, १