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गया है। सर्वप्रथम प्रबन्ध के दो भेद किये गए हैं---श्रव्य और प्रेक्ष्य । प्रेक्ष्य के भी दो भेद हैं- पाठ्य और गेय। पाठ्य के १२ भेद बताये गए हैं.-नाटक, प्रकरण, नाटिका, समवकार, ईहामृग, डिम, व्यायोग, उत्सृष्टिकांक, प्रहसन, भाण, वीथी व सट्टक । इनके अतिरिक्त कोहल द्वारा वर्णित त्रोटक आदि की गणना भी पाठ्य के अन्तर्गत की गई है। गेय प्रेक्ष्य के निम्नलिखित १२ भेद बतलाए गये हैंडोम्बिका, भाण, प्रस्थान, शिंगक, भाणिका, प्रेरण, रामाक्रीड़, हल्लीसक, रासक, श्रीगदित और रागकाव्य । गेय के कुछ अन्य भेदों-शंपा, छलित, द्विपदी आदि का भी उल्लेख मिलता है। 'अलंकारचूड़ामणि' में किसी अज्ञात ग्रंथ से इन सबके लक्षण उद्धृत किये गये हैं।
हेमचन्द्र के अनुसार श्रव्य काव्य के पांच भेद हैं-महाकाव्य, आख्यायिका, कथा, चंपू और अनिवद्ध । महाकाव्य पद्यबद्ध होता है तथा उसकी रचना संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश व ग्राम्य भाषाओं में से किसी में की जाती है। उसकी कथावस्तु सर्ग, आश्वास, संधि, अवस्कंध या कबन्ध में विभक्त रहती है। उसमें पंच संधियों की सुन्दर योजना तथा शब्द व अर्थ के चारुत्व का समावेश आवश्यक है।
कथा और आख्यायिका का भेद भामह के अनुसार बतलाया गया है। कथा के अनेक रूपों व उनकी प्रतिनिधि कृतियों का निर्देश भी किया गया है, जैसे(१) उपाख्यान (नलोपाख्यान), (२) आख्यान (गोविन्द), (३) निदर्शन (पंचतंत्र), (४) प्रवह लिका (चेटक), (५) मंथल्लिका (गोरोचन व अनंगवती), (६) मणिकुल्या (मत्स्यहसित), (७) परिकथा (शद्रक कथा), (८) खण्डकथा (इन्दुमती), (६) सकलकथा (समरादित्य), (१०) उपकथा और (११) बृहत्कथा (नरवाहनदत्त चरित)। इनमें से अधिकांश कृतियां अनुपलब्ध
इस अध्याय के अंत में हेमचन्द्र ने चम्पू और अनिबद्ध काव्यों का वर्णन किया है । अनिबद्ध के अन्तर्गत मुक्तक, संदानितक, विशेषक, कलापक, कुलक व कोष आदि भेद बतलाए गए हैं।
इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने काव्यशास्त्र के समस्त विषयों का आठ अध्यायों के कलेवर में वर्णन कर दिया है। संस्कृत अलंकारशास्त्र में विषयगत समग्रता की दृष्टि से काव्यानुशासन की तुलना यदि कोई ग्रंथ कर सकता है तो एकमात्र विश्वनाथ का 'साहित्यदर्पण' ही जो काव्यानुशासन के लगभग २०० वर्ष बाद लिखा गया। ___ आचार्य हेमचन्द्र ने 'काव्यानुशासन' की रचना में अनेक स्रोतों से गृहीत सामग्री का उपयोग किया है जिससे यह एक संग्रहात्मक ग्रंथ बन गया है। भरत, दण्डी, वामन, आनन्दवर्धन, राजशेखर, अभिनवगुप्त, भोज, मम्मट आदि अनेक आचार्यों के मतों का उन्होंने 'काव्यानुशासन' के सूत्रों एवं वत्ति व विवेक में शब्दशः
८२ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान