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या अपनी भाषा में अनूदित करके उद्धृत किया है । यही कारण है कि 'काव्यानुशासन' में 'ध्वन्यालोक' या 'वक्रोक्तिजीवित' की-सी मौलिकता तथा स्वतंत्र व नूतन उद्भावनाओं के दर्शन नहीं होते। मम्मट के समान समन्वय का विराट् व प्रौढ़ प्रयास भी हेमचन्द्र ने नहीं किया। उनकी कृति में विभिन्न काव्य-तत्त्वों के समन्वय का जो रूप दिखाई देता है उसके लिए वे मम्मट के ऋणी हैं । काव्यानुशासन के प्रायः प्रत्येक पृष्ठ में पूर्व आचार्यों के विचारों व पदावली की प्रतिध्वनि सुनी जा सकती है। इसीलिए काव्यशास्त्र के कतिपय आधुनिक विद्वानों ने काव्यानुशासन को मौलिकता-शून्य तथा प्राचीन कृतियों का उच्छिष्ट तक कह दिया है। श्री पी० वी० काणे ने अपने ग्रंथ 'हिस्ट्री ऑफ संस्कृत पोएटिक्स' में काव्यनुशासन के विषय में यह मन्तव्य प्रकट किया है
"काव्यानुशासन एक संग्रह-ग्रंथ मात्र है, इसमें मौलिकता का शायद ही कहीं दर्शन हो । इसमें काव्यमीमांसा, काव्यप्रकाश, ध्वन्यालोक तथा लोचन से प्रचुर सामग्री ली गई है।"
डा० सुशीलकुमार दे ने भी अपने ग्रंथ 'हिस्ट्री आफ संस्कृत पोएटिक्स' में काव्यानुशासन की मौलिकता के विषय में प्राय: ऐसे ही विचार प्रकट किये हैं। उनके मतानुसार "पूर्ववर्ती ग्रंथों पर हेमचन्द्र की निर्भरता इतनी अधिक है कि अनेक अवसरों पर वह दासवत् अनुकरण या साहित्यिक चौर्य की कोटि में पहुंच जाती
यद्यपि हेमचन्द्र में मौलिक प्रतिभा की कमी है पर यह कहना कि काव्यानुशासन अलंकारशास्त्र की पूर्व कृतियों का उच्छिष्ट मात्र है, ममीचीन नहीं है। काव्यानुशासन के अनेक स्थलों पर उन्होंने अपनी स्वतंत्र विचारणा व विवेचना का परिचय दिया है। कुछ बिन्दु जिन पर उन्होंने पूर्व आचार्यों से अपनी असहमति या स्वतंत्र मति व्यक्त की है, ये हैं ----
१. हेमचन्द्र ने मम्मट द्वारा स्वीकृत काव्य-प्रयोजनों में से अर्थ-प्राप्ति,
व्यवहार-ज्ञान तथा अशिव-क्षति को अंगीकार नहीं किया। उनके अनुसार काव्य से धन की प्राप्ति अनेकांतिक है, व्यहार-ज्ञान अन्य शास्त्रों से भी हो सकता है तथा अनर्थ-निवारण (शिवेत्तर-क्षति) प्रकारान्तर
से भी शक्य है। २. काव्य-हेतु के विषय में भी हेमचन्द्र ने अपना विचार-स्वातंत्र्य प्रकट किया है। उनके अनुसार प्रतिभा ही एकमात्र काव्य-हेतु है तथा व्युत्पत्ति
व अभ्यास उसके केवल संस्कारक हैं।' ३. मम्मट के काव्य-लक्षण का अनुगमन करते हुए भी हेमचन्द्र ने काव्य में
अलंकार की स्थिति के विषय में अपना मतभेद प्रकट किया है। जहां मम्मट 'अनंलंकृती पुनः क्वापि' द्वारा स्फुट या अस्फुट रूप में अलंकारों
आचार्य हेमचन्द्र और उनका काव्यानुशासन : ८३