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बामन आदि अनेक आचार्यों के गुण-संबंधी विचारों का विस्तृत संकलन किया गया है ।
पंचम अध्याय : इसमें छह शब्दालंकारों का भेद-प्रभेद सहित निरूपण किया । ये अलंकार हैं - अनुप्रास, यमक, चित्र, श्लेष, वक्रोक्ति व पुनरुक्त
गया
वदाभास ।
षष्ठ अध्याय : इसमें संकर सहित २६ अर्थालंकार वर्णित हैं । हेमचन्द्र ने अर्थालंकारों की संख्या को काफी न्यून कर दिया है । मम्मट ने 'काव्यप्रकाश' के दशम उल्लास में ६१ अलंकारों का वर्णन किया था, पर हेमचन्द्र ने उनमें से अनेक महत्त्वहीन व चमत्कारशून्य अलंकारों को या तो छोड़ दिया है या इन्ही २६ अलंकारों में उनका अन्तर्भाव कर लिया है। उदाहरणार्थ, उनके मतानुसार संसृष्टि का संकरालंकार में अन्तर्भाव है। दीपक की परिभाषा उन्होंने ऐसी दी है कि तुल्ययोगिता का भी उसी में अन्तर्भाव हो जाता है । परावृत्ति नामक अलंकार में मम्मटोक्त परिवृत्ति व पर्याय दोनों अन्तर्भूत हैं । अनन्वय और उपमेयोपमा को उन्होंने उपमा का ही भेद माना है तथा निदर्शना के अंतर्गत प्रतिवस्तूपमा व दृष्टान्त का अन्तर्भाव कर लिया है । स्वभावोक्ति व अप्रस्तुतप्रशंसा को हेमचन्द्र ने क्रमशः जाति और अन्योक्ति नामों से अभिहित किया है।
हेमचन्द्र द्वारा वर्णित २६ अलंकार ये हैं उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, निदर्शना, दीपक, अन्योक्ति, पर्यायोक्ति, अतिशयोक्ति, आक्षेप, विरोध, सहोक्ति, समासोक्ति, जाति, व्याजस्तुति, श्लेष, व्यतिरेक, अर्थान्तरन्यास, ससंदेह, अपहनुति, परावृत्ति, अनुमान, स्मृति, भ्रांति, विषम, सम, समुच्चय. परिसंख्या, कारणमाला और संकर |
काव्यानुशासन के सूत्र व वृत्तिभाग में इन्हीं २६ अलंकारों का विवेचन किया गया है, पर 'विवेक' में अन्य आचार्यों द्वारा निरूपित इतर अलंकारों की भी यत्रतत्र चर्चा आयी है । हेमचन्द्र ने उनका या तो इन २६ अलंकारों में ही अन्तर्भाव किया है या उनका अलंकार न होना सिद्ध किया है ।
इस प्रकार उक्त छह अध्यायों में हेमचन्द्र ने काव्य के उन तत्त्वों का विवेचन समाप्त कर लिया है जिनका मम्मट ने काव्यप्रकाश के १० उल्लासों में प्रतिपादन किया था ।
सप्तम अध्याय : इस अध्याय का विषय 'नायकनायिका-भेद' है । नायक, प्रतिनायक, नायक के गुण, नायक के चार प्रकार व उनकी विशेषताएं, विविध प्रकार की नायिकाएं, अवस्थानुसार नायिकाओं के भेद आदि विषयों की इसमें चर्चा की गई है। हेमचन्द्र ने इस अध्याय के लिखने में दशरूपक, नाट्यशास्त्र व अभिनवभारती का उपयोग किया है ।
अष्टम अध्याय : इसमें प्रबन्धात्मक काव्य के विभिन्न रूपों का वर्णन किया
आचार्य हेमचन्द्र और उनका काव्यानुशासन : ८१